बेताल कह रहा था , " मुझे बहुत मजा आता है,जब मै अपने मन की बात करता हूं , और आप ना चाहते हुए भी उसे सुनते हैं- बड़े दिनों में खुशी का दिन आया ! आप की जेब में रखा " दिल धक धक " गुटखे का पाउच मैंने निकाल लिया है। बुरा मत मानना, पिछले जन्म में बिहार पुलिस में हुआ करता था। ख़ैर, आप को कहानी सुनाता हूं, मगर चेतावनी देता हूं कि बीच में कुछ बोल कर मौन भंग किया तो मै शव लेकर ऐसे उड़ जाऊंगा, जैसे सतयुग के हाथ से अच्छे दिन के तोते उड़ गए "!
विक्रम मन ही मन गालियां दे रहा था और बेताल एक करेंट कहानी शुरू कर चुका था ," कलियुग को धकेल कर सतयुग आ चुका था! पूरे देश में चारण बधाई गीत गा रहे थे, - दुख भरे दिन बीते रे भैया सतयुग आयो रे -! लेकिन अभी सतयुग बकैयां बकैया चलना सीख ही रहा था कि दूध में "कोरोना" टपक पड़ा! एक्ट ऑफ गॉड का करिश्मा देखिए , रोगी नज़र आ रहे थे और रोग नदारद ! जैसे जैसे कोरोना मजबूत हो रहा था, उसी रफ्तार से अर्थव्यवस्था मजबूत हो रही थी ।
दुनिया दंग थी। सडक पर भय को हराकर भूख उतर पड़ी थी। देश के महानगरों को जोड़ने वाली सभी सड़कों पर पैदल चलने का मैराथन शुरू हो गया था। प्रशासन चाहता था कि - सर्वे भवन्तु सुखिन:.,,,,!और जनता सतयुग की भावना को सम्मान देते हुए बसों को छोड़ कर पैदल चलने में आत्मनिर्भर होने में लगी थी ! चारों ओर हरियाली ही हरियाली नजर आ रही थी ! कोरोना सिर्फ अख़बार, न्यूज़ चैनल, अस्पताल और कबरस्तान में नज़र आ रहा था।"
थोड़ा रुक कर बेताल फिर शुरू हुआ, " राजन! देश में कोरोना के बावजूद आत्मनिर्भर होने में किसी तरह की कमी नहीं पाई गई! चोर, गिरह कट , दुकानदार, प्राइवेट डॉक्टर, पुलिस सबको छुट्टा छोड़ दिया गया था। अब कारोबार और बेकारी के बीच आत्मनिर्भरता भ्रमित होकर खड़ी थी कि जाएं तो जाएं कहां ! और विपक्ष रामराज पर सवाल उठा रहा था , " हमारे अंगने में तुम्हारा क्या काम है!
- राजन मेरा सवाल है कि जब एन डी ए के साथ साथ देश के समस्त ऋषि ,मुनि , मीडिया और देवताओं को सतयुग साफ साफ़ नज़र आ रहा है तो विपक्षी दलों को क्यों नहीं नज़र आता ? जवाब जानते हुए भी तुम अगर मौन रहे तो तुम्हारा सर जनता दल की तरह टुकड़े टुकड़े हो जाएगा "!
आगे कुआं पीछे खाइं! मजबूर विक्रम को मौन भंग करना पड़ा,-' सियासत में एक पुरानी परंपरा है बेताल ! विपक्ष को कभी सत्तापक्ष का "विकास" नहीं नज़र आता! हमारे देश के विपक्ष ने ये रूटीन बना लिया है कि सत्ता से बेदखल होते ही वो आंखों पर गांधारी पट्टी बांध लेता है । सत्ता पक्ष की अच्छाई और विकास ना देखने की इस ' धृतराष्ट्र परंपरा" को बड़ी निष्ठा और लगन से निभाया जाता है! इस काजल की कोठरी में कोई बेदाग नहीं है। मेरा मतलब,,,,, सास भी कभी बहू थी "!
विक्रम के मौन भंग करते ही बेताल शव के साथ उड़ा और फिर उसी पेड़ की डाल से, फौजदारी के पुराने मुकदमे के फैसले की तरह, लटक गया !
विक्रम सर पकड़ कर बैठ गए । " दिल धक धक" गुटखे की पहली दुकान यहां से तीन किलोमीटर दूर थी।
हा हा हा बहुत तीखा व्यंग्य है। लिखते रहें सर। अगली कड़ी का इंतजार रहेगा।
ReplyDeleteदेशी नेताओं की फितरत पर करारा कटाक्ष है, मज़ा आ गया, अगले एपिसोड के इंतजार में दिल धक धक किये जा रहा है।
ReplyDeleteइस बेताल से दोबारा मिलने के लिए बेताब हूँ ।