Tuesday, 15 September 2020

' बीमार होने का बड़प्पन"!

               मेरा मानना है कि बड़े आदमी की हर बात बड़ी होती हैं! छोटा आदमी छींकने में भी उसका मुकाबला नहीं कर सकता! अमूमन आम आदमी नाक से छीकता है, पर बड़े आदमी के ऊपर ऐसी कोई पाबंदी नहीं होती ! वो कहीं से भी छींक सकता है! ग़रीब और शरीफ़ आदमी छींक आने पर घबरा कर इधर उधर देखता है कि कहीं उससे कोई गलती तो नहीं हो गई! बडा आदमी अदा के साथ छींकता है, और फिर आस पास मौजूद लोगों की ओर ऐसे देखता है, गोया छींक कर उसने बड़ा एहसान किया हो । अगर वो ना छीकता तो चीन अब तक जाने कितना अंदर आ जाता ! 
          बड़े आदमी की हर बात बड़ी होती है! उसकी बीमारी के सामने गरीब आदमी के स्वास्थ्य की नाक बहने लगती है! बड़ा आदमी अपने बीमारी का बखान ऐसे करता है कि गरीब आदमी को अपने बीमार ना होने  का गम सताने लगता है! पिछले हफ़ते की बात है,  मै अपने दोस्त कादरी साहब के पास गया। पता चला कि उनके  "अब्बा श्री' की तबीयत ख़राब थी ! मैंने पूछा, - ' हुआ क्या था ?' तब से आज तक मेरा कॉन्फिडेंस नार्मल नहीं हो पाया ! पेशे से बिल्डर कादरी साहब ने बीमारी का बड़प्पन पेश करते हुए कहा ' हार्ट ब्लॉकेज का केस था ! अपोलो हॉस्पिटल में  एसी रूम बुक करवाया था ! बीस लाख का पैकेज था! ऐसे मामलों में भला पैसे का मुंह क्या देखना , यू नो !!" 
          वो बोल रहे थे और मै हीनता से सिकुड़ रहा था। वो खर्च करते हुए पैसे का मुंह नहीं देख रहे थे, और मुझे खर्च करने के लिए पैसे का मुंह देखना मुश्किल हो गया था ! वो बीस लाख खर्च करके भी मुस्करा रहे थे, और मेरी जेब से बीस रुपए भी नहीं गिरे थे फिर भी चेहरे से ऐसा लग रहा - गोया डूबने वाला " टाइटेनिक जहाज़" मेरा ही था ! सारे जहां का दर्द हमारे जिगर में है! मै जानता था कि - साक़िया आज मुझे नींद नहीं आएगी !
      सर्वहारा लोगों ने ही दुनियां की पहली ' लोरी ' की
रचना की होगी ! जब झोपड़ी में पैदा होकर बच्चे ने चांद मांगा होगा ! लेकिन उस लोरी की मार्केटिंग किसी बड़े आदमी ने कि होगी तभी गीत पॉपुलर हुआ होगा। बेशक ९९ प्रतिशत गरीब ही गरीब के काम आता हो, पर गरीब को गरीब कभी पोटेंशियल नहीं नजर आता ! इसलिए वो भीड़ बन कर बगैर चेहरे के फना हो जाता है! 
      बड़े आदमी की बड़ी बात । पैदा होने से लेकर मरने तक वो अपने बड़प्पन का ख़्याल रखता है । सरकारी ठेकेदार अग्रवाल साहब अपने बाप के  "भव्य" अंतिम संस्कार का वर्णन चार दिन बाद अपने मित्रों में कुछ इस तरह कर रहे थे -' पिता जी गांव के आदमी थे, देसी घी बहुत खाते थे ! मैंने कोरोना काल में भी उनकी चिंता पर पांच टीना शुद्ध घी उड़ेला था, पिता जी खुशी खुशी जल गए ! अब ऐसे में पैसे का मुंह क्या देखना! पिता जी कौन सा रोज़ रोज़ मरते हैं"!

              श्मशान दूर था और देसी घी हैसियत से परे , वरना उनके कई मित्र हीनता के चलते वहीं चिता सजा लेते !      ( ये जीना भी कोई जीना है लल्लू !!)

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