वक्त बदल गया है ! पहले भाग दौड़ करने से घर चल जाता था ! अब भाग दौड़ करने से घर चलने की बजाय घर का गेहूं बिक जाता है। आदमी दिन भर भाग दौड़ कर जेब की आख़री अठन्नी खर्च कर लौट के बुद्धू घर को आ जाते हैं! भाग दौड़ से भी कुछ आउट पुट निकलता नजर नहीं आता ! ज़िंदगी आश्वासन पर टिक कर रह गई है। विडंबना यह है कि आश्वासन से आटे का कनस्टर नहीं भरता। मै रोज दस लोगों को फ़ोन करता हूं । पता चलता है कि सभी भाग दौड़ कर रहे हैं। दोपहर तक रोटी रोज़ी के लिए और उसके बाद बिजली के तुगलकी बिल के लिए ! होता कुछ नहीं, काम को कोरोना निगल गया और बिजली के बढ़े हुए बिल के लिए आपका "वोट" ज़िम्मेदार है! तो,,,, कुल मिलाकर कोरो और आपदा दोनों के लिए आप खुद ज़िम्मेदार हैं !
मैं भी भाग दौड़ कर रहा हूं। इस शृंखला में दिल्ली की सारी सड़के नाप डाली हैं ! काम तो मिला नहीं, लेकिन अंदर से मिल्खा सिंह होने की फीलिंग आ रही है! कल की भाग दौड़ के लिए यही फीलिंग काफ़ी है। भाग दौड़ के मामले में अब मेरे आत्मनिर्भर होने की शुरुआत हो चुकी है।
As usual amazingly written
ReplyDeleteThanks a lot of you.
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