Thursday, 1 October 2020

"साहित्यिक हादसा"

         मैं इस दुनियां में पैदा हुआ, ये मेरे माँ बाप के लिए खुशी की बात हो सकती है! मैं बहुत शैतान बच्चा था, ये मेरे मित्रों के लिए खुशी की बात हो सकती है। पढ़ने में ठीक ठाक था, ये अध्यापकों के लिए सुखद ख़बर हो सकती है! काॅलेज के बाद मेरी शादी वहीं हुई, जहां मैं चाहता था ! ( ये मित्रों के लिए ईर्ष्या भरी खुशी की बात हो सकती है!) गृहस्थी चलाने के लिए सरकारी नौकरी पकड़ने की बजाय साहित्य पकड़ लिया, ये मेरे भविष्य के लिए बिलकुल अच्छी चीज़ नहीं थी। क्योंकि मै जैसे ही साहित्य की ओर गया, फिर उसके बाद चिरागों में रोशनी ना रही !
                अब चूंकि साहित्य को घर दिखाने का कुसूर मेरा था, लिहाज़ा रेगिस्तान कुंडली में शनि बनकर बैठ गया ! सम्मान और प्रशंसा की सूनामी आ रही थी,मगर दुर्भाग्यवश सम्मान को ब्रेकफास्ट या डिनर में खाने का प्रावधान नहीं था। साहित्यि में कारावास काट रहे साधकों ने समझाया ," नो चिन्ता! धीरे धीरे आपको प्रशंसा से पेट भरना आ जायेगा ! आंतों को हालात से एडजस्ट करना आ जायेगा ! और,,,तब आपको संतोषम परम् सुखम की आदत पड़ जायेगी ! वैसे भी अब आप साहित्य के अलावा किसी काम के नहीं रहे ! लिहाज़ा इस जवानी में भी आप साहित्य साधना में डूब कर कबीर का निर्गुण गाएं , " माया महा ठगिनी हम जानी "!
                       मेरे रिसर्च के मुताबिक अपने देश में साहित्यकारों की तीन प्रजातियां पायी जाती हैं! तीसरी किस्म का साहित्यकार खुद नहीं जानता कि वो साहित्य के लायक है या नहीं! रिटायरमेंट के पहले तक वो साहित्य और साहित्यकार से घोर नफरत करता है! उसे साहित्य से इतनी एलर्जी है कि अख़बार भी वो तभी पढ़ता है जब पेट साफ नहीं होता । वो सत्ता के गलियारों में बैठा नौकरशाह होता है,जिसे करप्शन के सभी बही खातो की जानकारी होती है। बस, रिटायर होते ही वो एक धमाकेदार किताब लिख कर बेस्ट सेलर लेखक बन जाता है !
           दूसरे किस्म का साहित्यकार जुगाड़ू और चोर होता है ! वो प्रतिभा के बल पर विख्यात होने का जोखिम  नहीं उठाता। मगर उसके कॉन्टैक्ट जबरदस्त हैं। उसकी साधारण रचना भी आराम से प्रकाशित हो जाती है ! किताब की समीक्षा और समाचार भी अख़बार में आ जाता है और फटाफट पुरस्कार आने लगते है!  वो जवानी में ही वरिष्ठ और विख्यात हो जाता है।जल्द ही वो अपने संपर्क और जुगाड से साहित्य में "डॉक्टर" हो जाता है । डॉक्टर बनते ही वो स्वस्थ साहित्य की किडनी निकालने लगता है।
              पहले यानी अव्वल किस्म का साहित्यकार दुर्भाग्य वश पैदाइशी साहित्यकार होता है! उस वक्त ईश्वर कतई अच्छे मूड में नहीं होता जब वो किसी सच्चे साहित्यकार को पैदा करता है। अपनी कालजई इस असाधारण रचना को अप्रतिम बुद्धि वैभव के साथ उसे कुंटल भर खुद्दारी भी दे देता है! अब वो इस नश्वर संसार में किसी से कॉम्प्रोमाइज नहीं करेगा , भले उसका पूरा परिवार खुदकशी कर ले !  लेखक के लिए उसूल और आत्मसम्मान परिबार से काफी है! अब कैफियत ये है कि "सरस्वती" उसे शाबासी देती रहेंगी और  "लक्ष्मी" लाठी। बेमिसाल साहित्य देकर भी जीते जी ( अक्सर) वो "अच्छे दिन" के इन्तजार में गाता रहता है," अबहू ना आए बालमा सावन बीता जाए"!!       
         भागने का कोई रास्ता छोड़ा ही नहीं! कबीर ने शायद लेखकों के बारे में ही कहा था," जो घर फूंके आपनो, चले हमारे साथ "! ( मगर ये तब समझ में आया,जब घर को लाईटर दिखा चुका था! आठवीं कक्षा में  "मास्साब"  ने बिलकुल गलत अर्थ बताया था!) मै चालीस साल की उम्र तक तो साहित्यिक हादसों से भागने का रास्ता ढूढता रहा, बाद में इसी दरिया ए में लिंटर डाल दिया। ग़ालिब ने कहा है," दर्द का हद से गुजर जाना है दवा होना "! उसके दर्द का हद एवरेस्ट जितना ऊंचा है ।

      हर सच्चा साहित्यकार शायद ज़िन्दगी का सलीब ढोता हुआ अपने दर्द के हद से गुजरने का इन्तजार करता है, कि,,,,, देखना है ज़ोर कितना,,,,,,,,!!

1 comment:

  1. Excellent.Bahot, bahot achchhi analysis hai, apne desh me lekhakon ki dasha ya durdasha ke baare me.

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