मैं बदनाम होना चाहता हूं । चालीस साल से 'नाम' कमाने में लगा था़ , नाम तो कमाया मगर नाक नहीं बढ़ी ! जवानी के बेहतरीन पच्चीस साल सामने से ट्रेन के डिब्बे की तरह गुजर गए ! उम्र का बही खाता देख रहा हूं, नाम तो है - नेफे में नोट नहीं है । जब मैं नाम कमाने में लगा था, इतने वक्त में पड़ोस के पांचू लाला बनिया से सेठ हो गए ! बस उन्होंने नाम नहीं कमाया !! वो अच्छे खासे बदनाम हैं! लोग कहते हैं कि उनकी दुकान पर बिकने वाले हर मसाले में मिलावट है ! उन पर ये गंभीर आरोप है कि लाला अपने पालतू घोड़े की लीद को मसाले में इतनी सफाई से मिलाता है कि घोड़ा भी ना पकड़ पाए ! बदनामी को बैलेंस करने के लिए उनकी एनजीओ गरीब और अनाथ लड़कियों की शादी कराती है! ( लड़के चाहे जितना अनाथ और गरीब हों , पांचू लाला उन पर कृपा नहीं करते !).उनकी इस दयालुता का रहस्य उनका घोड़ा भी नहीं जान पाया।
मैं पांचू लाला से काफी प्रभावित हूं और अब मैं भी बदनाम होना चाहता हूं ! कोरोना काल चल रहा है - ये आपदा में अवसर का मौसम है ! सोशल मीडिया पर धर्मयुद्ध जारी है ! कोरोना में बहुमत को राष्ट्रीय आपदा नजर आ रही है तो किसी को रामराज ! ( जाकी रही भावना जैसी, प्रभु मूरत देखी त्यों तैसी !) आपदा अपनी जगह है - अवसर अपनी जगह ! घुटनों में सर देकर बैठी जनता टीवी खोलती है, समाचार आ रहा है - ऑक्सीजन रोक कर डॉक्टर ने कई मरीजों की जान ली - ! अगला समाचार है - मरीज के रिश्तेदारों ने एक डॉक्टर को पीट पीट कर लहूलुहान किया -! ( हिसाब बराबर - ! ) बदनामी में बड़ा ग्लैमर है ! बदनाम आदमी को सलामी देने वाले ज्यादा हैं । भय बिन होय न प्रीति,,, का फॉर्मूला कलियुग में ज्यादा हिट है ! तमाम बदनाम और बदमाश लोगों ने "आपदा'' में ही बड़ी बड़ी फसल काटी है ! बाढ़ की आपदा में सिंघाड़े की खेती सबको नहीं आती है , मै बपुरा बूडन डरा रहा किनारे बैठ,,,! इसलिए अब तक बदनाम नहीं हो पाया !
बदनामी में करियर बनाना है तो साहस और बेशर्मी दोनों चाहिए। ( साहस की कमी नहीं पर बेशर्मी को लेकर थोड़ा चिंतित हूं!) जैसे जैसे उमर निकल रही है, मेरी घबराहट बढ़ रही है ! आख़र कब मुझे अक्ल आयेगी और कब मैं बदनाम हो पाऊंगा ! अभी जवानी के कुछ अवशेष बाकी हैं ! बाद में बदनाम होने पर बृद्धाश्रम वाले भी इंट्री नहीं देंगे! अपने अंदर झांक कर देखता हूं ! 'गुरु' वाला स्थान खाली है ! देश में बदनाम महापुरुषों की कमी नहीं है - एक ढूढ़ों हजार मिलते हैं - वाली प्रचुरता है ! ' राम रहीम' से लेकर संत ज्ञानेश्वर तक किसी से भी कोचिंग लेकर ' असीम आनन्द ' की प्राप्ति हो सकती है ! तो,,, मन रे परसि हरि के चरन !!
इस बार किसी मित्र से सलाह नहीं लूंगा ! मैं नहीं चाहता कि "चौधरी" या "वर्मा जी" को इसकी भनक भी लगे। पहले चुपचाप बदनाम हो लेते हैं ! इस उपलब्धि पर वर्मा जी का - दिल जलता है तो जलने दे -! अब बेसिक प्रॉब्लम ये है कि बदनाम होने की शुरुआत कहां से करूं !
बैंक को गठरी में बांध कर विदेश भागने में अच्छी खासी बदनामी है, लेकिन पास में पासपोर्ट तक नही है! जनहित में फाइनेंस कंपनी खोल कर मुहल्ले को ठगने से भी थोक में बदनामी हासिल होगी, पर उसके लिए इन्वेस्ट करना पढ़ेगा ! मेरे बदनाम होने की कोई सूरत नज़र नहीं आती ! ले दे कर "छेड़खानी" ही अफोर्ड कर सकता हूं ! लेकिन छेड़ूं किसे ? कॉलोनी में सब पहचानते हैं और दूसरे मुहल्ले में छेड़खानी करूं तो सही सलामत लौट पाने की क्या गारंटी है ! ( अस्पताल के बेड पर पड़ कर बदनामी को एंज्वॉय नहीं करना चाहता !)
हमारे यूपी में एक देहाती कहावत है- या तो नाम सपूते या कपूते -! यानि बेटा चाहे 'सपूत ' निकले या ' कपूत ' दोनों सूरतों में नाम कमाएगा -!( ये हमारे यूपी वालों का ही कलेजा है जो ऐसी कड़वी कहावत को पैदा करते हैं!) मैने भी सपूत होकर नाम कमाने की बड़ी कोशिश की , पर मेरा नंबर आते आते मानसून रुक जाता है ! कई जगह सपूत होकर नाम कमाना चाहा , पर वहां पर जमे कपूत ने ठीया लगने ही नहीं दिया ! प्राइवेट हो या सरकारी , हर जगह सपूत से ज्यादा कपूत की टीआरपी देखी है! मुझे लगता है, हमारे समाज में दो तरह के संस्कार पनप रहे हैं ! शरीफ, संवेदनशील और सचरित्र सपूतों को सतयुग वाला वैक्सीन दिया जाता जाता है - सत्यम ब्रूयात -! कपूतों पर पाप पुण्य की कोई प्रेत छाया नहीं होती ! उनका स्टेमिना इतना सॉलिड होता है कि कोरोना में कोविड इंजेक्शन की जगह कुकुरमुत्ता का काढ़ा भी काम कर जाता है !
हमेशा 'सपूत ' को ही कांवर ढोना पढ़ता है !
कपूत को हर फील्ड में ग्रेस माक्र्स मिल जाता है! बाप भी अपने कपूत का बचाव करते हुए कहता है, " तुम्हें उसके मुंह नहीं लगना चाहिए था "! ज़माने की नब्ज पहचानने वाले बाप घर में भी कपूत को प्रीफ्रेंस देने लगे हैं , - मेरा नाम करेगा रोशन जग में बेटा नाकारा -! ( पडोसी का खेत दबाना या बंजर हडपना सपूत के बस का नहीं होता ! ऐसे मौके पर सपूत बेटा संस्कार ओढ़ लेता है, " देख पराई चूपडी मत ललचावे जीव ''!) इसलिए अब बदनाम होने की तमन्ना है। नाम कमा कर नींद गवां बैठा । कोरा नाम कमाने से क्या फायदा कि बाल काटने के बाद नाई मालिश भी ना करे !
लेखन जैसे व्हाइट कॉलर जॉब में भी 'कपूत ' लोगों की कमी नहीं है ! आम के पेड़ में कलम बांधना तो सबने सुना होगा , मै एक ऐसे लेखक को जानता हूं जो दूसरों के रचनाओं की शाख काट कर अपने लेख में रोप लेते हैं ! ऐसे लेखक कोरोना में भी फल फूल रहे हैं और सच्चे लेखक "अच्छे दिन" के उम्मीद में आह भर रहे हैं - ' अबहूं न आए बालमा सावन बीता जाए -'!!
( सुलतान भारती )
वाह बहुत खूब , वक्त के साथ दौड़ाता हुआ व्यंग्य।
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