Friday, 19 February 2021

अनाथ रचना की कुटिया - " डस्टबिन "

   अनाथ रचना की कुटिया -" डस्टबिन"

                          अपना मानना है कि साहित्य में ठुकराई हुई रचना का डस्टबिन से वही रिश्ता है जो समाज से ठुकराए बच्चों का अनाथालय से होता है ! दोनों का कोई दोष नहीं होता, और दोषी की कोई पकड़ नहीं होती ! घर आई रचना को अनाथालय में डंप करते वक्त संपादक के चेहरे पर वही दर्प होता है, वो धर्मराज के चेहरे पर उस वक्त होता है जब 'बहीखाता'  देखे बगैर वो किसी पुण्यात्मा को नर्क में डाल देते हैं ! ऐसे फैसले में  न  "री टेक" की गुंजाइश होती है न  'पुनर्जन्म '  की ! 
            बाई द वे, ऐसा भी नहीं है कि हर ठुकराई हुई रचना में ऑक्सीजन नहीं होती या संपादक को उसमें कंक्रीट नहीं नज़र आता ! डस्टबिन में पड़ी उपेक्षित अबला रचना के पीछे हमेशा रचनकार ही दोषी हो , ये ज़रूरी नहीं है ! रचना के न छपने का कारण कई बार संपादक खुद  होता है ! जब  रचनाकर और रचना का स्तर संपादक से ऊपर होगा तो भी कई बार रचना दीवाने खास की जगह डस्टबिन में नज़र आती है ! कई बार रचनाकार की अतिरिक्त खुद्दारी भी संपादक के " अहम ब्रह्मस्मि " को  खटकने लगती है, क्योंकि ऐसे लेखक संपादक की रेगुलर वंदना से परहेज़ करते हैं ! अब ऐसे में रचना का आशियाना डस्टबिन ही होगा ! असल में सिर्फ प्रतिभा , पोटेंसी और धारदार पेन के बलबूते रचना के प्रकाशन का स्वर्णयुग और संपादक अब बाघ की तरह विलुप्ति के कगार पर हैं ! इसलिए हे पार्थ ! रीढ़ की हड्डी में थोड़ा रबड़ डालिए - वरना डस्टबिन के लिए तैयार रहें !

       ( सुलतान ' भारती ')

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