लेकिन विरोधियों ने इस शब्द को लेकर बावेला मचा दिया ! सोशल मीडिया पर तमाम वैज्ञानिक उतर आए और नए नए"जीवी" की ख़ोज शुरु हो गई । जैविक हथियारों के इस्तेमाल पर हालांकि रोक लगी है,फिर भी रोज सोशल मीडिया पर बुद्धि' जीवी ' हैं कि मानते नहीं ! रोजाना कुछ नई ख़ोज लांच कर दी जाती हैं! तुम एक 'जीवी ' दोगे, वो दस लाख देगा- के तर्ज़ पर "जीवी" भंडार में वृद्धि हो रही है ! इस श्रृंखला में अब तक लुकमाजीवी, भाषण जीवी , नफ़रत जीवी- ईवीएम जीवी जैसे शब्द आ चुके हैं, और हर दिन फेस बुक उर्वर और साहित्य गौरवांवित होता जा रहा है ! वेलेंटाइन डे के अगले दिन हमारे एक विद्वान मित्र (सरवर उज्जैनवाल) ने एक गजब की पोस्ट फेस बुक पर डाली_
कल वो "प्रेमजीवी" लगीं !
और आज "जुल्म जीवी" !! ( पता नही उनकी धर्मपत्नी ने ये पोस्ट देखी या नहीं।)
मुझे अभी तक सिर्फ दो तरह के ' जीवी ' की जानकारी थी, एक "बुद्धिजीवी" दूसरा "परजीवी" ! ( वैसे ईमानदारी से देखा जाए तो हर बुद्धिजीवी एक सफल परजीवी होता है !) बुजुर्गो ने कहा भी है - मूर्खों के मुहल्ले में अक्लमंद भूखा नहीं रहता -! ( फौरन परजीवी बन जाता है !) इस तरह देखा जाए तो मच्छर जैसे बदनाम परजीवी की औकात बुद्धिजीवी के सामने कुछ भी नहीं है ! मच्छर का शिकार बहुत कम मरता है और बुद्धिजीवी का शिकार बहुत कम बचता है ! परजीवी के खून पीने की घोर निंदा होती है जबकि बुद्धिजीवी प्रशंसित होता है ! पीने की इस नियति पर मुझे अपना ही एक शे'र याद आ जाता है -
पीने को मयस्सर है मेरे देश में सब कुछ !
वो सब्र हो या खून ये क़िस्मत की बात है !!
आंदोलन के बगैर आज़ादी भी कहां हासिल होती।
आंदोलन इंसान के ज़िंदा और चेतन होने की निशानी है! आंदोलन व्यवस्था को निरंकुश और विषाक्त होने से रोकता है ! ( बशर्ते आंदोलन सकारात्मक और जनहित में हो!) आंदोलनजीवी वो होते हैं जो किराए पर आते हों ! अपना खेत खलियान छोड़कर परिवार के साथ सड़क पर रात काटने वाले "आंदोलन जीवी" नहीं बल्कि "जीवित आंदोलन" होते हैं ! इस आंदोलन से कौन अल्प जीवी बनेगा और कौन दीर्घजीवी इसकी भविष्यवाणी कोई नहीं कर सकता ! विलुप्तप्राय और मरणासन्न विपक्ष पर आराेप है कि वो किसानों को बरगला रहा है ! 'बरगलाने' वाला आरोप उस विपक्ष पर है जो खुद गरीबी रेखा से नीचे खड़ा मुश्किल से अपना पाजामा संभाल रहा है ! उसके पिंजरे के बचे खुचे " तोते" कब नज़रें फेर कर उड़ जाएं- कोई भरोसा नहीं !
आंदोलन और जीवी की जंग में पानीपत का मैदान बनी दिल्ली बेहाल है ! अंदर कोरोना और केजरीवाल ! बाहर कील और कांटो से घिरा किसान ! हाहाकार में पता लगाना मुश्किल है कि कौन किससे लड़ रहा है ! न्यूज देख कर जनता कंफ्यूजन का शिकार है ! ऊपर से मीडिया की भूमिका ने - नरो वा कुंजरो - का भ्रम बना रखा है ! खुले मैदान में परजीवी मच्छर किसानों की नींद का जायज़ा ले रहे हैं। संभावनाओं के घने कुहरेे में देश को विश्व गुरू होने की सलाह दी जा रही है !
सोशल मीडिया पर ज्ञान की गंगा उतारी जा रही है !
।।। ( सुलतान भारती) ।।।
आज की राजनीतिक व्यवस्था पर बेहद ताज़ा तीखा व्यंग।
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