Wednesday, 24 February 2021

" विकास" है कि मानता नहीं !

         " विकास" है कि मानता नहीं '

               एक प्रगतिशील नेता की नज़र में, कोरोना और जनता में कौन ज़्यादा काम का है - इस गूढ़ सवाल का जवाब सिर्फ़ नेता ही जानता है ! सिर्फ नेता ही जानता है कि कब कहां सतयुग की ज़रूरत है, और कहां विकास की ! नेता ही अपनी दिव्य दृष्टि से देख पाता है कि कहां सतयुग के अभाव में कोरोना की सूनामी आई है और कहां कोरोना खुदकुशी पर मजबूर है ! बहुत हुआ, अब मच्छरासुर और महिषासुर के दिन लद चुके, अब उनके सामने दो विकल्प है - हृदयपरिवर्तन या हलाहल ! विकास के लिए कुछ भी करेगा ! मेरे कई दोस्त और पड़ोसियों को अभी से विकास बगैर चश्मा के नज़र आ रहा है ! (बीच में सिर्फ़ मेरा घर छूट जाता है !)
     कल   बुद्धिलाल जी मुझे बता रहे थे कि विकास आने से पहले विकास की बयार बहने लगती है, जैसे बसंत के आगमन से पहले पछुआ बयार चलती है !  सियासत में ऐसी बयार तब चलती है जब चुनाव का ऐलान होता है !वर्तमान में ऐसी बयार बंगाल में बह रही है ! इस वक्त देश के कुल विकास का तीन चौथाई हिस्सा बंगाल को "सोनार" बनाने में लगा दिया गया है! सत्तारूढ़ भाजपा विकास का दावा करे तो समझ में आता है, ( क्योंकि अर्थव्यवस्था उन्हीं के हाथ में हैं!) लेकिन सिंहासन बत्तीसी से बाहर बनवास काट रहे लोग भी हंसिया हथौड़ा लेकर दौड़ रहे हैं ! जब वो पावर में थे तो बंगाल का विकास क्यों नहीं किया ! ( तब शायद वोट के लिए विकास की ज़रूरत भी नहीं थी - जैसे आज !)
       तो,,,, बंगाल अब ' सोनार बांग्ला ' होने के लिए करीब करीब तैयार खड़ा है ! हर पार्टी के सांतक्लाज जिंगल बेल जिंगल बेल की धुन पर अपनी अपनी स्लेज गाड़ी पर विकास लाद कर निकल चुके है ! सोनार बांग्ला बनाने के लिए वो महापुरुष सबसे आगे हैं जिनका खुद का प्रदेश समस्याओं की मंडी बना हुआ है। अज्ञानी सवाल उठा रहे हैं कि वो पहले अपना प्रदेश क्यों नहीं सुधारते ! क्या मूर्खता भरा सवाल है, - अपना घर आज तक कौन सुधार पाया है ! इसलिए महापुरुष हमेशा दूसरों के लिए अवतार लेते हैं, - परमारथ के कारने साधुन धरा शरीर -! ( कोरोना काल में शरीर की एक्सपायरी डेट पर भरोसा नहीं किया जा सकता , इसलिए सोनार बांग्ला के लिए सारा विकास - काल्ह करे सो आज कर !)
       कोरोना काल में विकास की कुंडली बनाने में जो महारथी पिछड़ गए वो कपाल क्रिया में लगे हैं ! लक्ष्य एक ही है कि किसी भी तरह  "विकास " में कोई कमी ना रहे ! हर कोई अपने अपने तरीके से सोनार बांग्ला बना रहा है ! विकास का अपना टेंडर विरोधियों के हाथ में जाता देख कर " दीदी" आग बबूला है ! दीदी बिलकुल नहीं चाहती कि उनके होते हुए कोई अनाड़ी आकर सोनार बांग्ला बनाए ! सबसे ज्यादा दीदी मीडिया से  खफा हैं, क्योंकि मीडिया ने उनके विकास को ना देखने की शपथ ले रखी है ! बंगाल में घुसते ही मीडिया मुगल आंखो पर धृतराष्ट्र का चश्मा लगा लेते हैं ! इसके बाद उन्हें सब कुछ ' काला' नज़र आने लगता है ! यही वजह है कि टीवी पर मीडिया  बंगाल को पूरी तरह "बंजर"  दिखा  रहा है ! मीडिया की नज़र में हिंदू त्राहि त्राहि कर रहे और मुस्लिम तुष्टिकरण का काजू बादाम खा रहे हैं ! ( इसी हिंदू मुस्लिम के नीर में नींबू डालकर फटे दूध से सत्ता का पनीर प्राप्त किया जाएगा !)
           मार्च के इस मनमोहक महीने में एक तरफ़ कोरोणा है दूसरी तरफ नेता ! नेता का मनोबल एवरेस्ट पर है और कोरोना का बंगाल की खाड़ी में ! कोरोना और जनता दोनों नेता के रहमो करम पर जिंदा हैं ! जनता और कोरोना में कब और कौन ज्यादा उपयोगी है, ये सिर्फ नेता ही जानता है ! कब किस प्रदेश को "कोरोना युक्त" होना है और कब "अपराध मुक्त" - यह भी नेता ही तय करता है ! सतयुग में कलियुग और घनघोर कलियुग में सतयुग का अवतरण उसी का चमत्कार है ! सौभाग्य से अब बंगाल के दिन बहुरने का मुहूर्त आ पहुंचा है! अब उसे " सोनार बांग्ला" होने से कोई नहीं रोक सकता ! खोज शूरू हो चुकी है, उपेक्षित इतिहास पुरूष भी ढूंढे जा रहे हैं ! दुर्गा जी के इतने भक्त तो बाढ़ में भी कभी बहकर नहीं आए थे ! सोनार बांग्ला के होने में बाधक सारे ' महिषासुरों ' को बंगाल से खदेड़ दिया जाएगा ! विकास के लिए कुछ भी करेगा ।

              अपराध, गरीबी, सतयुगविहीन बेकारी, कोरोना और कुशासन के चंगुल में फंसे बंगाल को "सोनार बांग्ला" बनाने के लिए सारे ' कारीगर ' पहुंच चुके हैं! साथ ही ढेर सारे साइबेरियन "सारस" गली गली आवाज़ लगाते  घूम रहे हैं, -' सोना लै जा रे ! चांदी लै जा रे !' अगले मुहल्ले में कोई और कारीगर आवाज़ लगा रहा है ,-'  ये "हाथ" नहीं फांसी का फंदा है, ये  " हाथ" हमें दे दे  दीदी !' कोई अलग ही अंदाज़ में मछलियों को दाना डाल रहा है, '- गरीबों की सुनो ! वो तुम्हारी सुनेगा - तुम एक वोट दोगे - हम पांच साल देगा "!

     ( इसलिए, सोच समझ कर वोट दें ! क्योंकि तारणहार चुनने के लिए जैसा "करम" करोगे वैसा  "फल" भुगतोगे ! ) 

Friday, 19 February 2021

अनाथ रचना की कुटिया - " डस्टबिन "

   अनाथ रचना की कुटिया -" डस्टबिन"

                          अपना मानना है कि साहित्य में ठुकराई हुई रचना का डस्टबिन से वही रिश्ता है जो समाज से ठुकराए बच्चों का अनाथालय से होता है ! दोनों का कोई दोष नहीं होता, और दोषी की कोई पकड़ नहीं होती ! घर आई रचना को अनाथालय में डंप करते वक्त संपादक के चेहरे पर वही दर्प होता है, वो धर्मराज के चेहरे पर उस वक्त होता है जब 'बहीखाता'  देखे बगैर वो किसी पुण्यात्मा को नर्क में डाल देते हैं ! ऐसे फैसले में  न  "री टेक" की गुंजाइश होती है न  'पुनर्जन्म '  की ! 
            बाई द वे, ऐसा भी नहीं है कि हर ठुकराई हुई रचना में ऑक्सीजन नहीं होती या संपादक को उसमें कंक्रीट नहीं नज़र आता ! डस्टबिन में पड़ी उपेक्षित अबला रचना के पीछे हमेशा रचनकार ही दोषी हो , ये ज़रूरी नहीं है ! रचना के न छपने का कारण कई बार संपादक खुद  होता है ! जब  रचनाकर और रचना का स्तर संपादक से ऊपर होगा तो भी कई बार रचना दीवाने खास की जगह डस्टबिन में नज़र आती है ! कई बार रचनाकार की अतिरिक्त खुद्दारी भी संपादक के " अहम ब्रह्मस्मि " को  खटकने लगती है, क्योंकि ऐसे लेखक संपादक की रेगुलर वंदना से परहेज़ करते हैं ! अब ऐसे में रचना का आशियाना डस्टबिन ही होगा ! असल में सिर्फ प्रतिभा , पोटेंसी और धारदार पेन के बलबूते रचना के प्रकाशन का स्वर्णयुग और संपादक अब बाघ की तरह विलुप्ति के कगार पर हैं ! इसलिए हे पार्थ ! रीढ़ की हड्डी में थोड़ा रबड़ डालिए - वरना डस्टबिन के लिए तैयार रहें !

       ( सुलतान ' भारती ')

Saturday, 13 February 2021

श्रम'जीवी ' से पर'जीवी ' तक

                          अनवरत खोज हो रही है, सियासत के महारथी अब साहित्य को समृद्ध कर रहे हैं ! इसी परंपरा में बिलकुल ताज़ा ताज़ा एक शब्द साहित्य में लॉन्च हुआ है, " आंदोलन जीवी" !  पता नहीं ये शब्द कितने "जीबी"  का है, पर इस शब्द के अवतार लेते ही देवासुर संग्राम जैसी सिचुएशन बन गई है ! दोनों तरफ़ से कथित बुद्धिजीवी  नये नए शब्द मिसाइल टेस्ट कर रहे हैं ! एक पक्ष ये साबित करने में एडी चोटी का ज़ोर लगा रहा है कि ' उनके ' श्रीमुख से जो  " देववाणी " निकल चुकी उसे ही  - सत्यम शिवम् सुंदरम - मान लिया जाए ! वरना आस्था में तर्क का अर्थ बगावत समझा जाएगा ! इस नए शब्द को आज से हिंदी शब्दकोश में शामिल कर उसका कुपोषण दूर किया जाए ! आगे और भी क्रांतिकारी खोज के लिए तैयार रहें !
                        लेकिन विरोधियों ने इस शब्द को लेकर बावेला मचा दिया ! सोशल मीडिया पर तमाम वैज्ञानिक उतर आए और नए नए"जीवी" की ख़ोज शुरु हो गई । जैविक हथियारों के इस्तेमाल पर हालांकि रोक लगी है,फिर भी रोज सोशल मीडिया पर बुद्धि' जीवी ' हैं कि मानते नहीं ! रोजाना कुछ नई ख़ोज लांच कर दी जाती हैं! तुम एक 'जीवी ' दोगे, वो दस लाख देगा- के तर्ज़ पर "जीवी" भंडार में वृद्धि हो रही है ! इस श्रृंखला में अब तक लुकमाजीवी, भाषण जीवी , नफ़रत जीवी- ईवीएम जीवी जैसे शब्द आ चुके हैं, और हर दिन फेस बुक  उर्वर और साहित्य गौरवांवित होता जा रहा है ! वेलेंटाइन डे के अगले दिन हमारे एक विद्वान मित्र (सरवर उज्जैनवाल) ने एक गजब की पोस्ट फेस बुक पर डाली_ 

कल वो  "प्रेमजीवी" लगीं !
और  आज "जुल्म जीवी" !!          ( पता नही उनकी धर्मपत्नी ने ये पोस्ट देखी या नहीं।)
           मुझे अभी तक सिर्फ दो तरह के ' जीवी ' की जानकारी थी, एक "बुद्धिजीवी" दूसरा "परजीवी" ! ( वैसे ईमानदारी से देखा जाए तो हर बुद्धिजीवी एक सफल परजीवी होता है !) बुजुर्गो ने कहा भी है - मूर्खों के मुहल्ले में  अक्लमंद भूखा नहीं रहता -! ( फौरन परजीवी बन जाता है !) इस तरह देखा जाए तो मच्छर जैसे बदनाम परजीवी की औकात बुद्धिजीवी के सामने कुछ भी नहीं है ! मच्छर का शिकार बहुत कम मरता है और बुद्धिजीवी का शिकार बहुत कम बचता है ! परजीवी के खून पीने की घोर निंदा होती है जबकि बुद्धिजीवी प्रशंसित होता है ! पीने की इस नियति पर मुझे अपना ही एक शे'र याद आ जाता है - 

पीने को मयस्सर है मेरे देश में  सब कुछ !
वो सब्र हो या खून ये क़िस्मत की बात है !!

         आंदोलन के बगैर आज़ादी भी कहां हासिल होती।
आंदोलन इंसान के ज़िंदा और चेतन होने की निशानी है!  आंदोलन व्यवस्था को निरंकुश और विषाक्त होने से रोकता है ! ( बशर्ते आंदोलन सकारात्मक और जनहित में हो!) आंदोलनजीवी वो होते हैं जो किराए पर आते हों !  अपना खेत खलियान छोड़कर परिवार के साथ सड़क पर रात काटने वाले "आंदोलन जीवी" नहीं बल्कि "जीवित आंदोलन" होते हैं ! इस आंदोलन से कौन अल्प जीवी बनेगा और कौन दीर्घजीवी  इसकी भविष्यवाणी    कोई नहीं कर सकता ! विलुप्तप्राय और मरणासन्न विपक्ष पर आराेप है कि वो किसानों को बरगला रहा है ! 'बरगलाने' वाला आरोप उस विपक्ष पर है जो खुद गरीबी रेखा से नीचे खड़ा मुश्किल से  अपना पाजामा संभाल रहा है  ! उसके  पिंजरे के बचे खुचे  " तोते" कब नज़रें फेर कर उड़ जाएं- कोई भरोसा नहीं !

       आंदोलन और जीवी की जंग में पानीपत का मैदान बनी दिल्ली बेहाल है ! अंदर कोरोना  और केजरीवाल ! बाहर कील और कांटो से घिरा किसान ! हाहाकार में पता लगाना मुश्किल है कि कौन किससे लड़ रहा है ! न्यूज देख कर जनता कंफ्यूजन का शिकार है ! ऊपर से मीडिया की भूमिका ने - नरो  वा  कुंजरो - का भ्रम बना रखा है ! खुले मैदान में परजीवी मच्छर किसानों की नींद का जायज़ा ले रहे हैं। संभावनाओं के घने कुहरेे में देश को विश्व गुरू होने की सलाह दी जा रही है !

   सोशल मीडिया पर ज्ञान की गंगा उतारी जा रही है !

   ।।।    ( सुलतान भारती)   ।।।

Tuesday, 9 February 2021

" भैंस बड़ी या वेलेंटाइन "

         (व्यंग्य भारती)     

"इश्क में वेलेंटाइन का इन्फेक्शन " 

अल्लाह तेरी कुदरत ! बसंत के मौसम में वेलेंटाइन के रूबरू खड़ा हूं! कलिकाल में यह भी देखना लिखा था - देख लिया ! दिल्ली में आकर ही वेलेंटाइन के बारे में ज्ञान प्राप्त हुआ। जब गांव में था तो इन दिनों वहां बसंत आया करता था़ ! ( आजकल मनरेगा भी आता है !)  शहर में बसंत नहीं वेलेंटाइन आता है -( शहर में बसंत का आगमन अब सिर्फ साहित्य और  समारोह तक सीमित है !) बीसवीं सदी के आठवें दशक तक पूरे देश में बसंत की मोनोपॉली थी ! जवानों से बूढ़ों तक उसी की हुकूमत थी ! फिर फरवरी में जब वेलेंटाइन पैदा हुआ तो,,, फिर उसके बाद चिरागों में रोशनी न रही ! नई जेनरेशन को देसी बसंत की जगह मॉडर्न वेलेंटाइन भा गई ! लोग "लोकल"  की जगह इंपोर्टेड आइटम के लिए "वोकल" होने लगे , और बसंत धीरे धीरे खांसता हुआ शरसैया पर लेट गया। नई जेनरेशन हुक्का पार्लर में वेलेंटाइन सेलिब्रेट करते हुए गाने लगी, - " पापा कहते हैं बडा़ काम करेगा -"! ( अब इससे बडा काम दूसरा था भी नहीं,  अपनी संस्कृति और संस्कार को मुखाग्नि देना था- दे दिया !)
         जब भी वेलेंटाइन किस्म के ' महान काम ' का विरोध होता है तो अभिव्यक्ति की आज़ादी लहूलुहान होने लगती है ! ( ये अभिव्यक्ति की आज़ादी कभी भुखमरी, अपराध , रोज़गार , या मिलावट से आहत नहीं होती !) वेलेंटाइन के पक्ष में तर्क देखिए , ' ये तो प्रेम की अभिव्यक्ति का प्रतीक है !' सुभान अल्लाह ! आज स्वर्ग में बैठे हुक्का पार्लर की ओर हसरत से देख रहे  'मजनू' कितनी हीनता का अनुभव कर रहे होंगे जब फरवरी में लैला  उनसे पूछ रही होगी  ,- ऐ जी ! हम दोनों के बीच में बगैर वेलेंटाइन के जो कुछ हुआ था, वो क्या था -!' उधर "फरहाद" के गले में भी १४ फरवरी अटकी होगी जब "शीरी " ने उससे पूछा होगा ,- ' पूरी जवानी पहाड़ ही काटते रहे, कभी मुझे हुक्का पार्लर क्यों नहीं ले गए ! वेलेंटाइन के बगैर लानत है तुम्हारी चाहत पर ' !
                  लेकिन अब वेलेंटाइन में वायरस टपक रहा है ! चौदह फरवरी से हफ़ता भर पहले ही धर्म योद्धा त्रिशूल लेकर पार्कों में वेलेंटाइन ढूढने लगते हैं ! किसी झाड़ी से कोई  'अभिव्यक्ति की आज़ादी ' बरामद हुई नहीं कि प्रेमी युगल को भाई बहन के पवित्र रिश्ते में बांध दिया जाता है ! इससे संस्कृति  मजबूत होती है और वेलेंटाइन कुपोषित ! पुलिस इस  'कारसेवा ' के दौरान पूरी  सतर्कता और निष्ठा से धर्मयोद्धाओं को सुरक्षा देती है , ताकि इस महान अनुष्ठान में कोई बाधा न आए ! जब से ये धर्म आंदोलन शुरू हुआ है, लोगों ने झाड़ी में जाकर "अभिव्यक्त"  होना छोड़ दिया है ! इस तरह हर साल चौदह फरवरी को हम विश्व गुरू होने की दिशा में थोड़ा आगे बढ़ जाते हैं !
           चौदह फरवरी सामने खड़ी है ! दूध की डेयरी चलाने वाले मेरे पड़ोसी चौधरी ने मुझ से पूछा, - " उरे कू सुण भारती ! बैलन के गैल कूण आ गयो चौदह फरवरी कू ! टांय टांय सा कछु नाम सै ?"
   " बैलन के गैल टांय टांय ? ओह समझा - वेलेंटाइन !"
   " हंबे ! घणी जल्दी समझ लई ! नू लागे - अक - तू भी टांय टांय के चक्कर में सै !"
     " बिलकुल नहीं !" मैं चिल्लाया " तुम्हारी भैंसो की कसम, मैं वेलेंटाइन के सख़्त खिलाफ़ हूं !"
       "  कदी भूल कै अभिव्यक्ति के धोरे मत जाना ! थारी उमर ते बसंत लिकड़ गयो , लेकिन या पतझड़ में तू लार टपका रहो !" 
         मैंने आह भरी, - " जब उम्र में बसंत था तो अब्बा श्री ने बगैर पूछे मेरी शादी कर दी और वेलेंटाइन की जगह कुंडली में बीबी आ गई ! तब से आज तक घर के बाहर अभिव्यक्ति का मौका ही नहीं मिला - ऐसे अकाल में चरित्र अपने आप ही मज़बूत हो जाता है !"
           चौधरी भी अतीत में खो गया, " म्हारी जिंदगी में कदी ' टांय टांय ' आई  कोन्या ! इब बीबी अर भैंस के बीच में किसी की जरूरत न बची ! खैर, परे कर टांय टांय नै , अर नू बता - यू फ़रवरी में ही क्यूं आवे सै ? "
      " अंग्रेजो के पास हमारी तरह वक्त नही होता , इसलिए उन्होंने फादर, मदर, दोस्त, दुश्मन, प्यार मुहब्बत सबको एक एक दिन दिया है ! ये जो टांय टांय यानि वेलेंटाइन है , इसे प्यार मुहब्बत करने के लिए चौदह फरवरी दे दी गई है !"
          " साड़ के बाकी दिन प्यार क्यों न कर सकैं बावली पूंछ ?"
मेरे पास तो चौधरी के ' सवाड़ ' का जवाब अब तक नहीं है ! प्यार को धर्म, संप्रदाय और देश की सीमा से मुक्ति की हिमायत करने वाले उसे  चौदह फरवरी की बंदिश में क्यों रखना चाहते हैं !
      जब जूतों का आविष्कार नहीं हुआ था, तब की एक कहानी है ! रोज रोज पैरों में लगती धूल से परेशान एक राजा ने क्रोध में आकर ऐलान कर दिया कि - ' सारे जानवरों को मार कर उनकी खाल से राज्य की समस्त धरती ढक दी जाए , ताकि मेरे पैरों में धूल न लगे -'! इस आपदा से बचाने के लिए एक बुद्धिमान आदमी ने तब उस राजा को सुझाव दिया था़ -' सरकार ! पृथ्वी को चमड़े से ढकने की बजाय आप अपने पैर ढक लें तो भी धूल नहीं लगेगी -'! विरोध ने वेलेंटाइन को ऑक्सीजन ही मुहैया कराया है ! बेहतर होता कि संस्कार और संस्कृति को बचाने के लिए पार्क की झाड़ियों में कंघी करने की जगह हम नई जेनरेशन को अपने शानदार तहजीब को अपनाने की प्रेरणा दें!

         बाय द वे - वेलेंटाइन का समर्थन और विरोध 14 फ़रवरी तक ही सीमित है !  15 फरवरी को  वेलेंटाइन सवेरे वाली गाड़ी से निकल जाती है । उसी दिन संस्कार और संस्कृति कोरोना फ्री हो जाती हैं और सारे धर्म योद्धा एक साल के लिए कोमा में चले जाते हैं !!

          कि मैं कोई झूठ बोल्या !!!

            (  सुलतान भारती )

    

       

Sunday, 7 February 2021

" छोटा लेखक / बडा़ लेखक"!

          "छोटा लेखक/बड़ा लेखक "

     मुझे मेरी मां ने मेरे बचपन का एक किस्सा सुनाया था ! दरवाजे पर भीख मांगने वाले एक फ़कीर ने  मुझे देख कर कहा था , -' बडा़ होकर ये बच्चा राजा बनेगा या फ़कीर !"( शायद ये इस बात पर निर्भर था कि मेरी मां उसे खाना खिलाती हैं या दुत्कार देती हैं !) उसके भविष्यवाणी की दूसरी आशंका सच साबित हुई और मै लेखक बन गया ! ( हिंदी का श्रमजीवी लेखक होना किसी श्राप से कम है क्या!)  आज वो फ़कीर मुझे मिल जाए तो मैं उसका टेंटुआ दबा दूं ! खाना खाकर भी उसने कैसा अभिशाप दिया कि - ना खुदा ही मिला ना विसाले सनम,,,,,!  राजाओं जैसी खुद्दारी और फकीरों जैसी घुन लगी अर्थव्यवस्था ,-  अब गाते रहें- पायो जी मैंने राम रतन धन पायो-!
         .              मैने कई बार सोचा कि अपने लेखक होने का ठीकरा किसी दुश्मन के ऊपर फोड़ दूं , पर ऐसा होनहार और टिकाऊ दुश्मन मिला ही नहीं ! फ़कीर हाथ नहीं लगा वरना मै जेल में होता । दुनियां की कोई भी मां लाड प्यार करते हुए ये नहीं कहती  कि - बड़ा होकर मेरा बेटा हिंदी का लेखक बनेगा - ! फ़िर भी अभिशप्त बेटा शेयर मार्केट या सियासत में जानें की  बजाय साहित्य की खाई में कूद जाता है - हम बने तुम बने इक दूजे के लिए-! अब देश और दुनियां उस पर गर्व करती है और पत्नी विलाप - ' जीवन में इन्होंने कभी कोई ढंग का काम नहीं किया '!  
                  आजकल मै लेखक पर रिसर्च कर रहा हूं ! कुछ लोग लगातर बढ़िया लिखकर भी छोटे लेखक रह जाते हैं, तो कुछ चांदी की कलम चोंच में लेकर  साहित्य में पैदा होते हैं !  ऐसे साहित्यकार की कलम में स्याही की जगह छोटे लेखकों का खून होता है ,जो इस उम्मीद में डोनेट करते रहते हैं कि शायद अंगूठा लेकर  पूज्य "द्रोणाचार्य"  जी उसको ' विख्याति '  दिला दें ! पर वो  ऐसी आत्मघाती दयालुता नहीं दिखाते ! गुरु शिष्य परंपरा में कभी भी दक्षिणा मांग लेने की वीटो पॉवर " गुरू"( घंटाल) अपने पास रिजर्व रखता है ! साहित्य के अधिकतर गुरुओं का आभा मंडल प्रतिभाशाली युवा लेखकों के  " अंगूठे"  की  बदौलत है !
              ये जो बड़े लेखक हैं, उनका बड़प्पन कमाल का होता है । मैंने वरिष्ठ लेखक की कुछ दुर्लभ विशेषता भी देखी है , मसलन - वो अपना या अपने गैंग के अलावा किसी और की पूरी रचना पढ़ना घोर अपमान समझते हैं ! ईर्ष्या में सुलगते हुए कोई उत्कृष्ट रचना पढ़ भी लिया तो घंटों अंगारों पर लौटते हैं ! इसके बाद उसके रास्ते में कील गाड़ने का  अपने  गैंग के खलीफाओं को व्हिप जारी करते हैं , '- ये लेखक बगैर किसी ' फर्टिलाइजर ' ( पुरस्कार ) के ऐसा लिख रहा है ! सारे मठाधीश को सतर्क कर दो कि इसकी रचना कोई ना छापे ! इसकी  साहित्यिक प्रतिभा  को    "संथारा मृत्यु" दिया जाए '-  ! 
               बडा रचनाकार कम बोलता है , सोशल मीडिया पर होते हुए भी अजनबी की पोस्ट पर कमेंट नहीं करता ! देश हित या समाज हित वाली किसी भी ऐसी पोस्ट को लाइक नहीं करता जिसके लेखक को जानता नहीं ! उसका टैलेंट आजीवन कोयले की तरह सुलगता है , कभी पूरी तरह जल कर रोशनी नहीं देता ! कई बड़े लेखक आख़िरी घंटी पर फ़ोन उठाते हैं और  साहित्य साधकों से ऐसी किफायत से बात करते हैं  गोया खुल कर बात कर लिया तो प्रतिभा की पूरी अंगीठी आज ही  ठंडी हो जाएगी ! कुछ बड़े लेखक तो इतने अन्तर्यामी होते हैं , कि समीक्षा लिखने के लिए रचना को पढ़ना भी गंवारा नहीं करते ! ( पढ़ कर तो कोई भी समीक्षा कर सकता है !) ये अक्सर बड़े गंभीर और दार्शनिक अंदाज में सोशल मीडिया पर नजर आते हैं , जैसे ओज़ोन की परत में हुए छेद को दुरुस्त करने की जिम्मेदारी इन्होंने ही उठा रखी हो  !
          प्रदेश साहित्य समिति में बैठे पंजीरी बाटने वाले देवताओं से इनके बड़े मधुर संबंध होते हैं ! प्रदेश की सत्ता में कोई भी पार्टी आए , ये उसी के चारण बन जाते हैं! इनके गैंग वाले दो लाख से लेकर पांच लाख रुपए में डॉक्टर की मानद उपाधि भी दे देते हैं ! आज से पांच साल पहले दिल्ली पुलिस में कार्यरत एक बुद्धिजीवी ने अपना एक व्यंग्य संकलन मुझे पढ़ने को दिया ! बैंक पेज पर उनको मिले साहित्यिक पुरस्कार की लिस्ट देख कर मैं सदमे मे चला गया ! उन्हें " युवा व्यंग्य सम्राट "  मिला था ! भारतीय साहित्यिक परंपरा के खिलाफ़ जवानी में ही वरिष्ठ और विख्यात हो रहे थे !

              देश में लेखक ज़्यादा हो गए हैं और पढ़ने वाले कम ! लोग दूसरों को पढ़ना ही नहीं चाहते !. अब तो पुरस्कार और प्रसिद्धि पाने में विलंब देख कुछ प्राणी विदेशों में जाकर वरिष्ठ  हो आते हैं ! क्या करें - हिम स्खलन की रफ्तार से डिजिटल होती प्रतिभा  पुनर्जन्म या बुढापे का इतिजार नहीं कर सकती ! उनका कहना है कि इसी जन्म में -  मुझको चांद लाकर दो -!

             ( ।।।     सुलतान भारती    ।।। )