Saturday, 9 January 2021

लघु कथा - ' टूटती लकीरें '

        मटियामहल से फराशखाने तक आने मे उसे महसूस हो गया कि अंदर कुछ दरक सा गया है । पल पल ऐसा महसूस हो रहा था कि इसके रिक्शे पर दो सवारियां नहीं बल्कि पहाड़ रख दिया गया हो !  रिक्शे पर बैठी वो एक युवा मां थी जो अपने तीन साल के बेटे को बार बार ये ताकीद कर रही थी ,-'  मामू के घर में किसी बच्चे से मार पीट मत करना' ! बच्चा बहुत ही शैतान था और बड़ी मुश्किल से मां उसे संभाल रही थी ! जामा मस्जिद के दक्षिणी गेट से बाईं तरफ मुड़ते ही बच्चे की नज़र बकरों पर पड़ी और वो उन्हें भी लेने की ज़िद करने लगा, - ' वो सफ़ेद वाला चाहिए -'!  बड़ी मुश्किल से मां ने उसे रिक्शे से बाहर कूदने से रोका था !
     थोड़ी देर के लिए समरू  अपना दुख दर्द भूल गया ! उस बच्चे की आवाज़ में अब एक नए चेहरे का अक्स उभर रहा था ,- सोनू ! उसका अपना बेटा सुरेंद्र ! अब तो जवान हो रहा होगा ! ग़रीबी और ग्रामीण राजनीति ने उसका परिवार बर्बाद कर दिया था। सरपंच के विरोध में खड़ा होने का खामियाजा ऐसा भयानक था कि पुश्तैनी तीन बीघे जमीन वकील खा गए और जब फर्जी केस की सजा काट कर समर बहादुर उर्फ समरू  जब जेल से बाहर आया तो किसान से मजदूर हो चुका था ! पत्नी अपने छे साल के बेटे सुरेंद्र के साथ मायके चली गई थी ! खेत और परिवार के बगैर समरू को पूरा गांव अजनबी सा लगा ! तीन चार दिन वो अपने खेतों को देख देख कर रोता रहा और एक दिन घर को खुला छोड़ कर गांव से निकल गया ! एक धुंधला सपना था कि दिल्ली शहर में पैसे कमाकर अपने टूटे ख्वाबों में दोबारा रोशनी जगाएगा ! और,,, अब आठ साल से वो रिक्शा चला रहा था ! सपनों में रंग तो नहीं आए, अलबत्ता उसके जिस्म और ज़िंदगी मे बेवक्त शाम उतरने लगी !
                         अचानक तेज आवाज़ आईं और वो अतीत से उछल कर वर्तमान में आ गया ! लड़की चीख रही थी, ' बहरे हो गए हो अंकल ! कब से चिल्ला रही हूं कि रिक्शा रोक दो , सुनते ही नहीं !' समरू अपराध बोध से दब गया था ! उसने रिक्शा रोका ! युवती अपने बेटे के साथ नीचे उतरी, पर्स खोला और पांच सौ का एक नोट निकाल कर समारू को पकड़ाया ! समरु ने धीरे से कहा , -' छुट्टा नहीं है बेटी !'
       " कोई बात नहीं अंकल ! रख लो ! खाना खा लेना और अपने बच्चों के लिए कुछ ले लेना !".
        समरु को लगा कि जैसे सूरज की तपिश में अचानक चांदनी घोल दी गई है ! वो रिक्शा लेकर वापस लौट पड़ा ! हर पल उसे ऐसा महसूस हो रहा था जैसे काफ़ी लोग इसका पीछा कर रहे हैं और हज़ारों नज़रे उसकी जेब पर लगीं हो ! चांदनी चौक की ओर लौटते हुए उसके तमाम ख्वाब फिर ज़िंदा हो गए ! बेटे के लिए एक सूट कपड़ा खरीदना था, बीबी के लिए बनारसी साड़ी ना सही, दो तीन सौ वाली साड़ी तो लेना ही था ! एक खेत हो जाता तो  मैं खेती करता और हमारी बीबी खेत पर खाना लेकर आती ! अंकुरित ख्वाब कद्दावर हो  रहे थे और पांच सौ का नोट  बौना होता जा रहा था ! 
         अचानक रिक्शा रुक गया , सामने दारू का ठेका था ! वो यंत्रचलित सा काउंटर पर पहुंच कर बोला, ' एक एयरिस्टोक्रेट की पूरी बोतल !' पंद्रह मिनट बाद वो कौड़ियां पुल के सार्वजनिक शौचालय के पास नशे में धुत बडबडा रहा था, ' आओ सब मुझे मार कर खा जाओ- तुम क्या मारोगे ! मैं  तो कब का मर गया हूं ! क्या करूं इस आंधी में मेरा एक भी तिनका रुकता ही नहीं है ! सब उड़ गया,,,,! ' बेटा पत्नी खेत ख्वाब और गाँव सारी तस्वीरें धुंधली होती चली गईं 
     और,,, फिर उसी फुटपाथ पर उसके खर्राटे गूंजने लगे ! अब ट्रेफिक का कोई शोर उस तक नहीं पहुंच रहा था!
         सारी चिंता की लकीरें टूट गईं थीं !

            ( सुलतान भारती)

No comments:

Post a Comment