मुझे आज तक बचपन से ज़्यादा लज्जतदार कुछ नहीं मिला ! शायद बचपन देख कर ही खुदा को जन्नत बनाने का ख्याल आया होगा ! बचपन,,,,यानी हमारी हुकूमत और बादशाहत का वो दौर जब हमारी चाहत पूरी करने वाले कतार लगाकर खड़े होते हैं ! जब हमारे रूठने पर पूरा घर मनाने पर उतर आता है ! जब हमारे रोने की आवाज़ से मोहल्ले के डॉक्टर को छोड़कर सब मायूस हो जाते हैं! वो बचपन, जहां बच्चे के देर तक जागने पर लोरियां जन्म लेती हैं , खिलौने बोलते हैं और मां बाप रात आखों मे काट देते हैं !
वही बचपन, जो इन्सान की ज़िन्दगी में सिर्फ एक बार आता है और यादों के ढेरों ख़ज़ाने सौंप कर चला जाता है! उम्र हमें इतनी भी मोहलत नहीं देती कि ज़िन्दगी के इस बेहतरीन ख़ज़ाने को हम पूरी तरह सहेज कर रख सकें ! उसके पहले ही हम वर्तमान की धूप में खड़े कर दिए जाते हैं, जहां हालात और दुनियां हमारी यादों पर अपने मोहरे खड़े कर देती है ! बस वहीं से हमारी सल्तनत का शीराजा बिखरने लगता है, हम चक्रवर्ती सम्राट से सीधे चौकीदार होने लगते हैं ! आज़ादी खत्म - अधीनता की ज़िन्दगी शुरू ! पहले टीचर के आधीन, फिर बॉस के आधीन और फिर बीबी के आधीन ! अंतर: बुढ़ापे में औलादों के आधीन !
बचपन ! क्या बादशाहत के दिन थे यार! नमक तेल लकड़ी की कोई फ़िक्र नहीं । ऊंच नीच के बारे में हमें कभी बताया ही नहीं गया ! हम शेख़ सैय्यद ! हमारे दोस्तों में दलित, ठाकुर,अहीर पंडित सभी थे! आज़ सोच कर हैरान हो जाता हूं बाबूलाल की लाई हुई उबली शकरकंद हम सब मिलकर खा लेते थे ! ( ऊंच नीच और जाति के बारे में सारा ज्ञान स्कूल से मिला ज़रूर पर अमल की पाबन्दी या सख्ती नहीं थी।) अखाड़ा, कुश्ती और कबड्डी में मेरा प्रतिद्वंदी संतराम भी एक दलित था ! गांव में जाता हूं तो संतराम के साथ आज भी हम बचपन की यादों के सारे एलबम उलट लेते हैं।
वैज्ञानिकों का दावा है कि इंसान का दिमाग जन्म से पांच वर्ष की आयु तक ९५ प्रतिशत डेवलप हो जाता है! बकाया ५ फीसदी विकसित होने में पंद्रह साल लग जाते हैं ! हमारे दौर के बचपन की उम्र दस साल तक थी। हमारी पीठ पर दस किलो किताबों का बोझ नहीं होता था । शुरुआत में लकड़ी की एक मजबूत तख्ती होती थी । उसी से हम आपसी विवाद तक निपटा लेते थे । तख्ती को घोंट कर चमकाने के लिए हम भी जाने कहां कहां से संजीवनी बूटी लाते थे ! आपस में लड़ते ज़रूर थे़, पर कभी घर में बताते नहीं थे़ ! ( तब घर में पिटने की भरपूर सम्भावना रहती थी।)
छोटे से बचपन का दायरा हमारे दिलों की तरह बडा़ था ! गांवों में बिजली नहीं थी मगर चांद की रोशनी में हम देर रात तक खेला करते थे । कुएं के पानी में खाना पकता था, उसी से खेत सींचते और उसी को पीते, पर कभी बीमार नहीं हुए ! बल्कि जिस कुएं के पास पेड़ होता, उसका पानी गर्मियों में रूह तक को सुकून देता ! ( आज हर घर में हैंडपंप है और उपेक्षित और लावारिस कुएं अपना बचपन ढूंढ रहे हैं!) हमें याद है कि मेला देखने के लिए मां से मिले २ रुपए पाकर हम कितने लबालब होकर घर से निकलते थे़ । इतनी बड़ी रकम देकर अम्मा ताकीद भी करती थीं कि छोटे भाई के लिए क्या क्या लाना है!
धान की फसल के बाद जब गेंहू के लिए खेत जोते जाते और सर्दियां दबे पांव गांव में उतरती, तो हम पूरी चांद रात गांव से बाहर खेतों में कबड्डी खेलते । सुबह खेत की हालत देखकर किसान गालियां देते जिसे हम लौंडे विटामिन और प्रोटीन समझकर लेते। जाड़े की सर्द रातों में पकते हुए गुड़ की सोंधी खुशबू में मदमस्त गांवों और चांदनी में बुझते हुए अलाव के गिर्द तिलिस्मी कहानियों में खोए हम बच्चे! अक़्सर कहानियां पूरी होने से पहले ही अलाव के किनारे हम नींद में लुढ़क जाते थे ! ( कहानी का वही रूहानी तिलिस्म जाने कब मेरी कलम और किरदार में उतर गया !) मै आज भी उन गुमशुदा कहानियों को ढूंढता हूं !
मैं जब जब बचपन में झांकता हूं तो यादों के तालाब में 'जोंकें ' ज़रूर नज़र आती हैं! हर साल तालाब में कमल खिलते , हर दिन हम नहाते और हर दिन हमारा कोई ना कोई दोस्त जोंक का शिकार बनता ! हमें मगरमच्छ से ज़्यादा खौफ इस ३ इंच की जोंक का होता था । तालाब में हमारे खेल भी बडे़ चुनौती वाले और खतरनाक हुआ़ करते थे ! मसलन - तालाब के किनारे वाले पेड़ पर चढ़ कर तालाब में छलांग मारना ! गहराई में ईंट को फेंकना,फिर उसे पानी में डुबकी मार कर सबसे पहले निकालना ! वो हमारा मैराथन था !
जाने कहां गए वो दिन ! बडा़ क्या हुआ , खुशियों की सारी कायनात छोटी हो गई ! चालीस साल दिल्ली में रहकर भी मेरा गांव और बचपन धुंधला ना हुआ़ ! ये सिर्फ हमारा बचपन नहीं है , यादों के इस आइने में आप सब के बचपन मुस्करा उठे होंगे ! वो बचपन - जो सरापा ज़िंदगी हमारी मायूसी को अपनी मासूम शरारतों भरी यादों से दूर कर देता है! बचपन - यानी हमारी सल्तनत की वो जागीर जो हमारी सांसों के साथ ही विदा होती है!
हमारे मासूम अरमानों का ख्वाबगाह !
काश ! हमारी ज़िन्दगी हमारे बचपन से कुछ सीख लेती ! हम क्या जवाब देंगे अपने बचपन को ! . आजा बचपन एक बार फिर,,,,,,,!!!
( सुलतान भारती )
बेहद मार्मिक, दिल को बहुत गहराई से छू गया। इस ब्लॉग को पढ़कर हर इंसान के होठों पर हल्की सी मुस्कराहट और आंखों में नमी आ जायेगी ।सबको अपना बचपन याद आ जायेगा।
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