हिम्मत-ए-मर्दा मददे खुदा' इस मुहावरे से जिस शख्सियत की ज़िंदगी या कहें जीवन-संघर्ष को शब्दों में बाँधने की कोशिश कर रहा हूँ उसका नाम है यामीन खान। भावुकता, संघर्ष, सेवा और संकल्प ही है जिनकी पहचान। आजकल ये शिल्पकारों के शिल्पी माने जाते हैं, उनके बीच तो मसीहा ही समझे जाते हैं। यामीन के मुताबिक, उनकी ज़िंदगी की जंग जोश से भरे एक युवा होते 16 वर्षीय किशोर के रूप में देश की राजधानी दिल्ली से शुरू हुई। वह नवम्बर'84 की जलती हुई दिल्ली थी। तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी की हत्या के बाद सिखों के खिलाफ यामीन की मानें तो खासकर सिखों के खिलाफ एक उन्माद दिल्ली की सड़कों पर सैलाब की तरह उमड़ रहा था। शायद एक खास कौम के बरख़िलाफ़ उठे सत्तादल के भटके युवाओं के उन्माद की वजह यह थी कि इंदिरा को उन्हीं के आवास के गेट पर गोलियों से भूनकर शहीद करने वाले उनके अपने ही अंगरक्षक सिख थे। फिर क्या था, कुछ ही घण्टों के बाद उस वक्त के अंध-जोशीले कांग्रेसी और इसीतरह के और नौजवान शिखों के घर जलाने, उन्हें मारने-काटने, घर जलाने में मुब्तिला हो गये, उस सनक में उन्हें बूढ़े, बच्चे, महिला, जवान में कोई फर्क नहीं दिख रहा था (भले ही बाद में पछतावा हुआ हो)। अपने दिल-दिमाग से ज्यादा जोश और दोस्त(जो उनके मुताबिक उस समय के आरएसएस के लोग थे) को सही समझने वाले आम लड़कों की तरह जोश में होश खो देने वाली उस भीड़ में यामीन भी शामिल हो गये। लेकिन एक अनाथ सरदारनी जो उन (इंदिरा के) हत्यारों को बराबर गालियां और श्राप दे रही थी, उसकी बातें सुनकर यामीन की इन्सानियत जाग गई। अचानक उस सादा दिल जवान के ज़मीर को झटका लगा कि 'आखिर इन बेकसूर लोगों को किसी एक की गलती की सज़ा ये उन्मादी युवा क्यों दे रहे हैं, और बिना कान देखे कौए को खदेड़ने वालों की तरह हम भी इनमें जोश में शामिल हो गये हैं।' इन्सानियत जागते ही वहशीपन भागता नज़र आया। अब यामीन इन निर्दोष लोगों के साथ खड़े थे। –शायद उन्हें उस वक्त प्राइमरी की किताबों में पढ़ी सिद्धार्थ (गौतम) की कथा में कही ' मारने वाले से बचाने वाला बड़ा (महान) होता है '–बात का मर्म समझ में आ गया। मानो हृदयपरिवर्तन हो गया हो। न केवल कई लोगों / परिवारों को बचाया, बल्कि हिम्मत-साहस, जज्बे के साथ युवा सिखों के जत्थे तलवारें लेकर निकले तो यह खुद उस हिंसक भीड़ का सामना करने के लिए सीना तानकर खड़े हो गए। पुलिस की मंशा के विपरीत सिखों के बचाव में भीड़ पर यथाशक्ति हमलावर होने की वजह से पुलिस के डंडे खाए, हवालात तक पहुंचे। उनके एक खास करीबी की मानें तो, 'हवालात का दरवाज़ा अन्य 'पुलिसिया आरोपों' की वजह से भी देखने का 'सु-अवसर' प्राप्त हुआ। हालांकि वे खुद इस सवाल को 'बचपना' कहकर टाल देते हैं, लेकिन समझने की कोशिश करें तो जवाब मिल ही जाता है।
खैर, उनसे हुई बातचीत के मुताबिक, 84 के दंगे से उपजे जनसेवा के भाव ने उनकी जिंदगी बदल दी। उसे इंसानियत की राह पर चलने का मुकद्दस मकसद दे दिया। कुदरती होनी में विश्वास करने वाले, खुर्जा (अलीगढ़) के बरका गाँव में जन्मे, बचपन बिताए यामीन खान के समाजी जिंदगी की राह आसान की 1986 में उनकी शरीक-ए-हयात ने। बकौल खान, 'मैं इस बात के लिए उनका एहतराम करता हूँ कि वे बहुत डिमांडिंग लेडी नहीं रहीं, शुरुआती दौर में उनके त्याग, सन्तुलन और सन्तोष ने मुझे समाज सेवा के काम में आगे बढ़ने का हौसला दिया। जितना भी मिला उसी में घर और बच्चों की सलीके से परवरिश कर हमें उस तरफ़ से बे-फिक्र किया।'.. और वे चल पड़े ऐसे काम की तलाश में, जिसमें सेवा और दोनों हो...इस बीच करीब एक दशक तक उन्होने समाजसेवा के जुनून में लोगों, संस्थाओं से जुड़ते-टूटते रहे। कुछ गलत लोगों की संगत के बायस पुलिस के हत्थे चढ़े, तो अच्छे काम व बर्ताव के नाते अनेक सामाजिक और पत्रकार साथियों से मदद मिली। पत्रकारिता का क्रेज देखकर उधर हाथ भी आजमाया । एक वक्त आया, जब उन्हें लगा कि आजकल समाजसेवा की लम्बी पारी 'एकला चलो रे' की तर्ज़ पर खेलना 'बहुत कठिन है डगर पनघट की' जैसा है। बिना किसी संस्था के यह काम कर पाना आसान नहीं होता।
1998 में आते-आते वे 'समझदार' हो गये और 'अल फ़लाह' संस्था (NGO) बनाई। लेकिन कार्यप्रणाली और उससे सम्बन्धित दांव-पेच सीखने, जज़्बे को राह देने के लिए यामीन नगीना धामपुर संस्था से जुड़े। संस्था के साथ जुड़कर उन्होंने उस दौरान उड़ीसा व गुजरात में आये भीषण भूकम्प के हताहतों/पीड़ितों को राहत/सेवा प्रदान की। नगीना धामपुर, बिजनौर से जुड़कर उन्हें सेवा करने और काम जानने का मौका तो मिला ही, उनके प्रदर्शनी/ शिल्प बाजार में सहयोगी होने के नाते गरीब कल्याण और कारीगरी को प्रोत्साहित करने वाली सरकारी योजनाओं का भी ज्ञान हुआ। इसके लिए वे संस्था के साथ ही प्रेरणास्रोत और मददगार रहे महिला गरीब कल्याण योजना से जुड़े दिल्ली सरकार के तत्कालीन अधिकारी ए.के. हांडा का आभार जताते हैं ।फिर क्या था? फ़लाह हैंडीक्राफ्ट सोसायटी का बेड़ा चल पड़ा। कहते हैं किसी व्यक्ति के आगे बढ़ने और ऊचाईयां छूने के पीछे किसी औरत का हाथ होता है। यामीन इसे क़ुदरत खास करम मानते हैं कि खुदा ने उन्हें ऐसी दो औरतें बख्शी। दूसरी पत्नी उन्हें मीडिया से जुड़ाव के दौरान मिलीं। उन्हें भी पत्रकारिता का शौक था। शौक और साथ के नाते दोनों करीब आये और एक-दूजे के हो गये। अब वे समाजसेवा और व्यवसाय में खासा सहयोग करने लगीं। कारोबार परवान चढ़ने लगा।
इस सवाल पर कि समाजसेवा और कारोबार एक साथ कैसे साधते हैं?---यामीन खान इसे जेनुइन सवाल करार देते हुए बताते हैं कि जब वे सरकार की गरीब, दस्तकारी, महिला कल्याण से जुड़ी योजनाओं/कार्यों के बारे में गहराई से जान गये, तो दिल्ली और आसपास के गरीब रहवासियों, झुग्गी बस्तियों में जाकर ऎसे लोगों की तालाश की, जिनके पास हुनर तो है, लेकिन अपने उत्पादों को बढ़ाने के लिए पूंजी और बेचने के बाज़ार नहीं है। जब वे इस तरफ़ बढ़े तो पीछे मुड़कर नहीं देखा। अबतक न केवल सरकार के विभिन्न मंत्रालयों, ख़ासकर शिल्पकारी, हथकरघा, पॉटरी, कुम्हारी, सिलाई-कढ़ाई (इम्ब्रायडरी), खिलौने, अचार, पापड़, मुरब्बा, समान्य कपड़े बनाने वाले कामों से जुड़े विभाग व उपक्रमों से सहायता दिलाकर अपनी देखरेख और सम्बन्धित सरकारी के सक्षम/सक्रिय निर्देशन में पिछले एक-डेढ़ दशक में दिल्ली के संगम विहार, फरीदाबाद और आसपास के तीन हज़ार से अधिक परिवारों के रोजी-रोटी का जुगाड़ किया, बल्कि करीब दो दर्जन प्रदर्शनी/शिल्प बाजार लगवा कर उनके उत्पादों को बाजार दिया और घरेलू महिलाओं को बाहर निकलने का मौका और मंच दिया। जड़ी-बूटियों को जंगलों से खोजकर आम व खास का इलाज करने वाले पुश्तैनी वैद्यों को भी उन्होंने मदद, व्यापार और बाज़ार दिया। वे फ़लाह हैंडीक्राफ्ट सोसायटी, जिसके कि वे कोआर्डिनेटर हैं, के हस्तशिल्प के विकास सम्बन्धी कार्यों को आगे बढ़ाने में सबसे ज्यादा श्रेय 'सिडबी' को देते हैं। उनके मुताबिक, सुल्तान भारती (अध्यक्ष), पूनम शाक्य (जनरल सेक्रेटरी), सुनीता आदि मेम्बरान का सबसे बड़ा गाइडेंस और सहयोग मानते हैं। यामीन बताते हैं कि अब उन्होंने अपने बच्चों को भी स्वतंत्र होकर कार्य करने का मौका दे दिया है।
हाल ही में दिल्ली के द्वारका में आयोजित दस दिवसीय नेशनल गांधी शिल्प बाज़ार की सफलता और उत्पादों की रिकार्ड बिक्री से उत्साहित यामीन खान से जब पूछा कि एक तरफ़ देशी संस्कृति को बढ़ावा, दूसरी ओर फ़ैशन शो जैसे बहुराष्ट्रीय कम्पनियों की तरह फ़ैशन शो जैसे आइटम का इस्तेमाल करना, कितना उचित है? उन्होंने कहा, इसके पीछे भी घरेलू महिलाओं के भीतर की कला को उभारने के साथ ही अपने उत्पाद के प्रति आकर्षण बढ़ाना ही उद्देश्य है।
पूरे डेढ़ घंटे बाद जब मुहम्मद यामीन खान का साक्षात्कार ख़त्म हुआ तो अपनी मैग्ज़ीन ( उदय सर्वोदय) के ऑफिस की ओर लौटते हुए रह रह कर मेरे जेहन में अवध के शायर एम के "राही" का एक शे'र गूंज रहा था-
कोई तन्हा मुसाफ़िर कारवाँ बन जाता है जिस दिन!
उसी दिन मुश्किलों के हौसले भी टूट जाते हैं!!
(सत्य प्रकाश)
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