"फिर से याद गांव की आई"
अवध के ऐतिहासिक जिला सुल्तानपुर का हमारा गांव " पटैला" ! बचपन मे झांकता हूं तो लंबा तबील वक्त भी मेरे बचपन की तस्वीर को रूबरू आने से रोक नहीं पाता ! मेरे बचपन की यादों से गुलज़ार मेरा गांव अचानक ही मेरी आखों के सामने नुमाया हो जाता है । बचपन के सारे संगी साथी (जो अब बूढ़े हो रहे हैं) अपनी उन्हीं शरारतों के साथ मेरे इर्द गिर्द जमा हो चुके हैं, और एक एक कर मुस्कराते हुए एलबम से बाहर आ रहे हैं, ये आज अयाज़ है, ये झब्बन, बिक्कन , अनीस, सोमई, मेंहदी, संतू, बाबूलाल और ये ईश्वरदीन । मैं उन्ही के साथ सारी दुनियां भूल कर धीरे से अपने बचपन में उतर जाता हूं! वो मस्त मासूम और मोहक बचपन- जो जाति धर्म, छुआछूत, ऊंच नीच और गरीबी अमीरी की दुनियावी सोच से मुक्त था !
पटेला गांव सुन्नी शेख और सय्यदों का गांव है, जिसमें तब दस पन्द्रह घर दर्जी और बीस घर दलितों के थे, ( आज दलितों के पचास साठ घर हैं!) उनके बच्चे हमारे सहपाठी और दोस्त थे ! हम साथ साथ खेलते, कूदते और लड़ते थे ! हमारे दलित दोस्त बेधड़क हमारे घर में घुस आते थे ! हम शेख सय्यादों के बच्चों को कभी सिखाया ही नहीं गया कि दलितों से मेल जोल रखने पर मज़हब में इन्फेक्शन हो जाता है ! संतराम अखाड़ा कूदने में हमारा सबसे बड़ा प्रतिद्वंदी था ! प्राइमरी स्कूल में बाबूलाल मेरा बेस्ट फ्रेंड था और ईश्वरदीन की हिंदी सुलेख से हमें बड़ी ईर्ष्या थी । बाबूलाल के घर के उबले हुए भुट्टे हम बगैर किसी संकोच के खा लेते थे ! (छीन कर खाने की अपनी लज़्जत थी !)
उस वक्त हमारा गांव बिजली की रोशनी से बहुत दूर था,मगर कुदरत ने हमारे दिलों को रोशन कर रखा था ! गांव में हर मौसम दिल खोल कर आता और हम बाहें फैला कर उसका खैर मकदम करते ! सर्दियों में ठंड के साथ भेड़ियों का खौफ भी हमें डराता था ! गरीबों के दुश्मन जाड़ा से लड़ने का क्या नायाब तरीका था!.धान के पुआल को कमरे में बिछाकर उस पर बिस्तरा लगा कर रजाई के नाम पर जो भी होता, ओढ़ कर सो जाते थे। हमारे ऑर्गेनिक गद्दे को देख लेता तो डनलप के गद्दे भी कोमा मे चले जाते ! बहुत गरीबी थी गांव में, पर कोई भूखा नहीं सोता था ! आपस में प्यार मोहब्बत और इत्तेहाद ने सबको समेट रखा था ! हमारे खेल भी दहलाने वाले थे, तालाब के किनारे खड़े महुआ के पेड़ से तालाब के पानी में छलांग मार कर फेंके हुए ईंट को ढूंढ कर निकालना ! ईट तो किसी एक को मिलती थी, लेकिन जोंकें सबको मिल जाती थीं । पूरी रात घर से दूर कब्रस्तान के नज़दीक जुते हुए खेत में कबड्डी खेलते थे और फजर की अजान से पहले भाग कर घर आ जाते थे। ( ताकि पता न चले कि बेटा खाट पर नहीं था !) फजर की अज़ान वो अलार्म थी जो हिंदू मुस्लिम दोनों की दिनचर्या शुरु करने का संकेत देती थी ! ( वही अजान आज कुछ लोगों को सरदर्द दे रही है !)
बसंत के मेले का इंतजार पूरे साल करते थे ! पांच किलोमीटर का कच्चा रास्ता खेलते कूदते पार कर लेते थे ! दो रुपये बहुत बड़ी रकम थी ! हम डेढ़ रुपए में कायनात खरीद लेते थे ! ये रुदौली की पपड़ी रही और उधर कोने में राधे की चाट पकौड़े की दुकान ! मैं मुरीद था उसके चाट का ! मेले में काले गन्ने का खास क्रेज था । और फिर आखीर में हम मिठाई के दुकानों पर ललचाते हुए पहुंचते थे ! इनके दाम हमें जलेबी की ओर धकेल देते ! हमारे सबसे अजीज़ दोस्त इब्राहीम के पास एक बेहतरीन तर्क होता था, -" ये सारी मंहगी मिठाइयां रात में जिन्न खरीदने आते हैं-" ( गुरबत कहां कहां से हौंसले लेती थी !)
दीवाली पर कुम्हार हमारे घरों में भी दिए, जटोले और घरोंधे दे जाते थे! त्योहार और खुशियों का तब कोई बटवारा नहीं था ! ईद सबके लिए थी, दलितो के परिवार की महिलाएं सिवईऔर खाना हमारे घरों से लेकर जाती थीं ! हर मुस्लिम परिवार पड़ोसी के हक की सुन्नत अदा करता था ! सर्दियों में जब गन्ने कट कर आते तो पकते हुए गुड की खुशबू से गांव मुअत्तर हो जाता ! फिर रात की गहराती खामोशी मे एक से एक रहस्यमय, और तिलिस्मी कहानियां सुनने को मिलती ! सुनते सुनते अक्सर हम वहीं लुढ़क कर सो जाते थे ! क्या दिन थे , तब शायद चांद सचमुच हमारा ' मामा' था ! चांद और वैसी चांदनी फिर कभी नहीं देखी ! रात में आसमान की ओर देखता तो ऐसा लगता गोया चांद कह रहा हो, "- सो जा भांजे, मुझे पूरी रात तारों से गुजरना है ! तू सो जा तो आगे जाऊं, वरना बहन नाराज़ होगी "!
हम क्यों बड़े हो गए ! हर खुशी छिन गई ! आज भी गांव जाकर स्कूल के पास जाकर दीवार और दरखतों को बड़ी हसरत से देखता हूं ! लगता है पेड़ मुझे पहचानने की कोशिश कर रहे हैं ! मै अक्सर पेड़ से अपनी पीठ सटा कर खडा हो जाता हूं ! सोचता हूं कि अभी वो मुझे अपनी शाखाओं में समेट लेगा ! यादों के दरीचे खुल जाते हैं पर दरखत की बाहें नहीं खुलतीं ! लगता है पेड़ को बड़े घाव लगे हैं ! नई पीढ़ी को रिश्ते और दर्द का एहसास भी अब कहां है।
आ जा बचपन एक बार फिर,,,,,,,!!
-- ( सुलतान भारती)
नहीं कोई उन्हें चिंता न कोई ज़िम्मेदारी है।
ReplyDeleteयहां बचपन हमारे ज़िंदगी की इक उधारी है।।
वही मस्ती वही किस्से कहां पर खो गए सारे।
वो अल्हड़ सी हंसी का पल करोड़ों पर भी भारी है।।
डॉली तिवारी
बहुत खूब
ReplyDeleteइंतजार है आपके घर आने का