Saturday, 17 July 2021

' देख पराई चूपड़ी मत ललचावे जीव '

  " देख पराई चूपड़ी मत ललचावे जीव"

           मैं बालकनी में बैठा हूं, सुबह से बारिश की झमाझम चल रही है । आत्मनिर्भर और सरकारी सुविधा भोगी लोगों के लिए ये पकौड़े का मौसम है और गरीब के लिए टटिया और छप्पर संभालने का ! मेरी प्रॉब्लम कुछ और है! किसी फेसबुकिया आलिम ने मेरे फोन पर मैसेज भेजा है, - देख पराई चूपड़ी मत ललचावे जीव -!  तब से मैं इसी सांप सीढ़ी में उलझा हुआ हूं ! क्या कोई महान आत्मा  इस पंक्ति का अर्थ बता सकता है ? ( वो  अर्थ बिलकुल मत बताना जो मिडिल स्कूल में 'मास्साब' ने सिखाया था !) मुझे तो इस पंक्ति के पीछे खड़े छायावाद  की फ़ोटोकॉपी  चाहिए !  बड़ा मुश्किल काम है ना !सोच कर ही अक्ल गाण्डीव  रख कर भागने लगती  है !  वर्मा जी से पूछा तो बोले,- ' आसान है-बता देता हूं -- 'फ्री में कोविड शील्ड लगवाने वालों को,  पैसा देकर स्पुतनिक लगवाने वालों से ईर्ष्या नहीं करना चाहिए -'! मैने एतराज उठाया, - जब ये दोहा लिखा गया, तब कोरोना कहां था "?  वर्मा जी  आंखें तरेर कर ढिठाई पर उतर आए - 'तो क्या हुआ, हैजा प्लेग और चेचक तो  प्रचुर मात्रा में था़ , उसमें एडजस्ट कर लो " !
                           ये सरासर जबरदस्ती थी, फिर भी मैंने उनसे अनुरोध किया, -' आप जैसे प्रकांड विद्वान से देश को बड़ी आशाएं हैं ! सत्यमेव जयते का अस्तित्व आप जैसे लोगों के कारण अजर अमर है "! खुश होने की बजाय उन्होंने शंकित होकर मुझे देखा , फिर फर्जी दार्शनिक के अंदाज़ में बोले- ' इसका अर्थ है - दूसरे का लिंटर पड़ते देख कर अपने दिल का छप्पर नहीं जलाना चाहिए -!" फिर अचानक भड़क उठे -' तेरी बहुत बुरी आदत है , तू मेरा मुकाबला कभी नहीं कर सकता !"
     " क्यों क्या हुआ ?"
  ' तेरे दो चार लेख क्या छप गए कि तू खुद को मुझसे बड़ा लेखक समझने लगा ! अब यहां पर तू पराई चूपड़ी
पर राल टपका रहा है "!
            " नहीं टपकाऊंगा, पर इतना तो बता दो कि आप किस अख़बार में लिखते हैं , मैंने कभी पढ़ा  या देखा नही! !!"
       वर्मा जी बगैर बताए ही उठ कर चले गए।
          समस्या जस की तस है ! चाह कर भी खुद को  -पराई चूपड़ी - से हटा नहीं पा रहा हूं ! आख़र  क्या है ये पराई चूपड़ी , जिसकी तरफ झांकने से कैरेक्टर ढीला होता है ! ये जानने के लिए दोहे की पहली लाइन उठा कर देखते हैं ,- रूखी सूखी खाय कर ठंढा पानी पीव -! दोहे का सीक्वेंस बताता है कि इसे लिखने वाले कवि के घर में आटे का कनस्तर खाली हो गया था और अगले दिन के लिए सिर्फ बासी रोटी बची थी ! कवि ने सुबह ब्रेकफास्ट में नाश्ते की फरमाइश की होगी और तब बीवी ने फटकार लगाई  होगी , -' कनस्तर खाली है और 'पांचू ' लाला अब और उधार नहीं देने वाला ! रात को यही दो रोटी बची थी ! एक तुम खा लो, दूसरी को चूहे खा गए ! आग लगे इन चूहों को - तुम्हारी बे लज्जत कविताओं को छोड़ कर हमारी रोटियां खा जाते हैं ! इसी को कहते हैं,- ' कंगाली में चूहे ज्यादा -'! 
       और,,,तब कवि ने बासी रोटी खाकर इस ताज़ी रचना को जन्म दिया होगा ,- रूखी सूखी खाय कर ठंडा पानी पीव- ! देख पराई चूपड़ी,,,,,,,!!
       लेकिन अभी भी दिल है कि मानता नहीं ! अगर ये दोहा कबीर का है तो ठीक है, क्योंकि उनके फूड चार्ट में 'रूखी सूखी' की बहुतायत थी, किंतु यदि इसे  रहीम खानखाना ने लिखा है तब तो मामला गंभीर है ! कवि खुद तो अकबर महान के शाही दस्तरखान पर बैठ कर फ्राइड चिकन खाए और पब्लिक को नज़र न लगाने की सीख दे !! ( बहुत नाइंसाफी है यह !)
           मुझे लगता है, सतयुग कभी आया ही नहीं। ये सुविधा भोगी एलीट कवियों का षडयंत्र है जो सर्वहारा वर्ग की महत्वाकांक्षा और स्वप्न की भ्रूण हत्या के लिए हर दौर में ऐसी रचनाएं लाते थे ! ऐसी रचनाएं पुनर्जन्म के ऐश्वर्य और वर्तमान के अभाव को उम्रदराज कर देती थीं ! इस मकड़जाल में फंस कर सर्वहारा वर्ग गरीबी को  'नियति 'और  स्वर्ग को अपना 'फिक्स डिपॉजिट' समझ कर भूखे पेट निर्गुण गाता था, - ' माया  महा  ठगिनी  हम जानी -! आस्था में ठगों की घुसपैठ आज भी चालू है! किंतु अब स्कूलों में ये  क्यों पढ़ाया जाता है  कि  - देख पराई चुपड़ी मत ललचावे जीव -! क्या ऐसी शिक्षा नई जेनरेशन के लिए गुफा युग में लौटने की प्रेरणा नहीं है ? पड़ोसी की "चूपड़ी" देख कर ही तो हम अपने घर में कलर टीवी, फ्रिज, वाशिंग मशीन और बाइक लाते हैं ! वरना हम आज़ भी मोह माया से परे किसी  गुफ़ा में चकमक रगड़ रहे होते !
                     जो एक बार गांव का सरपंच बन जाता है,  वो भी मरते दम तक अपनी  'चूपड़ी ' छोड़ना ही नहीं चाहता !  अच्छे नंबर नहीं आने पर जब पार्टी हाई कमान किसी मंत्री से इस्तीफा मांगता है तो मंत्री का फेस एक्सप्रेशन देखिए ! ऐसा लगता है गोया  इस्तीफा  नहीं - किडनी मांग लिया हो । इतनी तकलीफ़ और बेचैनी तो यमराज का भैंसा  देख कर भी नहीं होती ! आज़  के महापुरुषों ने दलित, दुर्बल और दुखियारों को गेहूं देने के लिए अवतार नहीं लिया है ! ये काम ईश्वर का है, वही भरा हुआ बोरा उठाए ! महापुरुष का काम गेहूं नहीं उपदेश देना है ! उपदेश में गेंहू से ज़्यादा फाइबर होता है! इसलिए सरकारी राशन की दुकान की अपेक्षा महापुरूषों के आश्रम में ज़्यादा भीड़ नज़र आती है ! घर का  'गेंहू ' दे कर  भक्त 'उपदेश ' घर ले आते हैं -  देख पराई  'चूपड़ी '  मत ललचावे जीव-!  ( भक्त के घर से आश्रम में आई कोई "चूपड़ी" महापुरुष को पसंद आ गई तो  फिर - समरथ को नहिं दोष गोसाईं -!)
                  प्रगतिवादी समाज को बुलेट युग से बैलगाड़ी युग में लाने के लिए एक और दोहा मुलाहिजा फरमाएं, - उतना पैर पसारिए जितनी लंबी सौर - !        ( 'सौर ' से कहीं 'सौर मंडल 'मत समझ लेना ! उनका काम था लिखना, अब इसमें गुण, निर्गुण, रहस्यवाद या छायावाद तलाशने का काम तुम्हारा है !) इस पंक्ति का अर्थ है कि घर की चादर जितनी लम्बी हो, उसी हिसाब से पैर फैलाना चाहिए !  कवि कितना संतोषम परम् सुखम का मानने वाला था कि चादर " बड़ी " लाने की जगह पैर "छोटा" करने का फतवा दे रहा है ! ( यकीनन कवि दयावान था, वरना पैर सिकोड़ने की जगह पैर को काटने का सुझाव देता !)  मैं तो कवि से सिर्फ इतना पूछना चाहता हूं कि दो चार सर्दियां निकलने के बाद जब चादर घिसकर डाइपर के साइज़ की हो जाए तो इन मरदूद पैरों का क्या करना है !!

                                         ( सुलतान भारती )
           

1 comment:

  1. लाजवाब व्यंग रचना। पढ़कर मज़ा आ गया।

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