Sunday, 18 December 2022

(व्यंग्य भारती) शर्म इनको मगर नहीं आती

(व्यंग्य भारती)

"शर्म इनको मगर नहीं आती "

     अपने अपने तरीके से हर कोई आत्मनिर्भर होने में लगा है! लेकिन इस कालिकाल में उम्मीदों में बौर आने से पहले ही लसिया जाते हैं! जब कामयाब होने वाले कम हों और बेकारी के शिकार ज़्यादा, तो विरोध और विद्रोह में से कुछ भी हो सकता है! जहां संतोषम परम सुखम है, वो जगह क्रांति के लिए बंजर है ! क्रांति का अर्थव्यवस्था से भी गहरा नाता है ! रोटी की फिक्र आदमी को मेंदा से मस्तिष्क की ओर नहीं जाने देती ! धीरे धीरे आदमी पेट से सोचने लगता है ! ऐसी सिचुएशन में बहुमत के दिमाग को कुछ लोग हाइजैक कर नर्सरी बना लेते हैं ! अब वहां मनपसंद विचारधारा रोपी जाती है ! सर्वहारा वर्ग विचारधारा को ही गेहूं और धान समझकर आत्मनिर्भरता की ओर चल पड़ता है ! ऐसी नर्सरी का आविष्कार सबसे पहले कांग्रेस ने ही किया था, आज छोटे भाई ने संभाल लिया है!
रंग पर रिसर्च शुरु हो गया है !
       ये पहली बार है कि "रंग" बेशर्म नज़र आया है! कुछ लोग आहत होने वालों से पूछ रहे हैं कि अक्षय कुमार और मनोज तिवारी की फिल्मो से आस्था को इंफेक्शन क्यों नहीं हुआ था ! यहां तो फ़िल्म के नाम ( पठान) से ही आस्था आहत गैंग सड़क पर उतर आया  ! बुनियाद देख कर ही आत्मा आहत होने लगती है,ऊपर से जेएनयू में आस्था रखने वाली हीरोइन ! इस फिल्म को तो देखना भी महापाप है ! विरोध जायज है, जब इंडस्ट्री में कंगना जी जैसी संस्कारी और सात्विक विचार वाली हीरोइन साक्षात मौजूद है तो दीपिका को क्यों साइन किया गया ! किसने  ऐसी बेशर्मी की ! बहुत नाइंसाफी है यह! इसकी सजा मिलेगी ! ऐसे गानों को देख देख कर आठ आठ साल के बच्चे भी गुल्लक फोड़ कर फ़िल्म देखने भागेंगे ! ऐसे गानों से संस्कार को पाला मार सकता है !
         बायकॉट के विरोध में विपक्ष अड़ गया है, काहे बहिष्कार करें, अक्षय कुमार और निरहुआ के गाने का विरोध काहे नहीं किया । उस गाने में तो ज़्यादा वायरस थे , तब आस्था काहे नहीं आहत हुई ! अब तो आटा बेच कर फ़िल्म देखना है! फ़िल्म नहीं देखूंगा तो विपक्ष धर्म का पालन कैसे होगा ! फिल्म नहीं देखा तो दीपिका और शाहरुख के घर वाले भूखों मर जाएंगे । तुम्हारी आस्था को चोट पहुंच रही है,इधर मेरी आस्था को इसी गाने से फाइबर हासिल हो रहा है ! अब आस्था का ध्यान तो रखना होगा ! परिवार का ध्यान रखने के लिए 5 किलो गेहूं है न ! आस्था का ध्यान कौन रखेगा !  पहले तो लोग ही एक दूसरे की आस्था का ध्यान रखते थे ! तब वाली आस्था इतनी कुपोषित भी नहीं थी कि पीली धूप देख कर मुरझाने लगे !
         आज दोपहर होते होते आस्था आहत गैंग के वर्मा जी ने चौधरी के कान भर दिए! चौधरी सीधा मेरे पास आकर बोला, -" उरे कू सुण भारती ! कितै जा रहो आज फिल्मी छोरी के गैल"!
      " कौन छोरी?" 
" वही छोरी, जो पीला लंगोट बांध कर आस्था आहत कर रही है ! के नाम सै बेशर्म छोरी कौ "?
       " दीपिका पादुकोण"!
"घणी जल्दी याद आ गयो नाम ! कितै छुपा रख्या सै छोरी नै!!"
   " मैं शादीशुदा आदमी हूं, क्यों मेरी आस्था को आहत कर रहे हो?"
     "वर्मा नू बता रहो अक तू फिलम देखने कू तावला सै ?"
      " तौबा तौबा ! मैने आज तक तुम्हारे बगैर कोई फ़िल्म कभी देखी"?
   " नू बता, कूण सी फिलम आई है " बेशरम रंग" ।
       " गाना है, फ़िल्म नहीं "!
" गाने ते आस्था आहत हो रही, या फिल्म ते?"         "हीरोइन ने जो लंगोट बांध कर गाना गाया है, उस के रंग से ! अगर लंगोट का रंग हरा होता तो आस्था नॉर्मल होती!"
        चौधरी का दिमाग़ घूम गया, - " पर हीरोइन कू लंगोट पहनने की के जरूरत थी ! बाकी कपड़े चोरी हो गए  के "?
      चौधरी का सवाल जायज़ है! बात रंग की छोड़ दें तो सवाल है ये है कि हीरोइनों के बदन पर कपड़े सिमट क्यों रहे हैं? हालत ये है कि सूट सलवार और साड़ी जैसे गरिमापूर्ण भारतीय परिधान लगभग विलुप्त हो गए ! इस नंगेपन से हमारी आस्था क्यों नहीं आहत होती ! बेकारी और मंहगाई से आहत होने के लिए पब्लिक को लावारिस छोड़ दिया गया है ! प्रशासन कभी आहत नही होता ! करप्शन,सांप्रदायिकता और नफरत की आंच भी उनकी आस्था तक नहीं जाती । कितनी मोटी खाल है !! "बेशर्म रंग" कितना गाढ़ा चढ़ा हुआ है किरदार पर ! ज़िंदगी से थपेड़े मारती अभाव,संघर्ष और गुरबत की लहरें कहीं किसी दिन अपना रास्ता न बदल दें! भूख और बेकारी की समस्या को समाधान चाहिए, शब्द नही।
           सोशल मीडिया के समर्पित योद्धा आग बबूला हैं! संस्कार और संस्कृति को बचाने की सारी जिम्मेदारी इन्ही के कंधो पर है ! पिछले आठ सालों में एक से बढ़कर एक  क्रांति आई है! कोराेना भले जनता के लिए लाभदायक न रहा हो, लेकिन कुछ लोगो ने उस बंजर आपदा में भी नफरत उगाने का अवसर पैदा कर लिया ! कोरोना से मरे बाप की अर्थी को कंधा  न  देकर भी इनकी आस्था कभी शर्मिन्द न हुई  !  संप्रदाय विशेष के कंधों पर बाप चिता पर जाता रहा और बेटा अर्थी ढोने वालों के थूक में कोरोना की नर्सरी ढूंढता रहा। गंगा में लावारिस बहते रिश्ते सहारा ढूंढते रहे और  बेशर्म लोग रंग में नफरत !

       कबीर की एक उलटबांसी थी, - बरसे कंबल भीगे पानी -! सच को झुठलाने और झूठ को पुनर्जीवित करने का इतना बड़ा समुद्र मंथन पहले कभी नहीं हुआ !!

          

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