"आग के दरिया में डूबता शहर"
आसमान से कार्पेट बमबारी, ज़मीन से टैंकों की बढ़ती हुई कतार और सामने 12/41 किलोमीटर का खंडहर मे तबदील होता हुआ एतिहासिक 'गजा' शहर ! नेतन्याहू और वृहत्तर इज़राइल के सपने के मध्य खड़ी 23 लाख की आबादी का अवरोध लगभग खत्म होने को है ! जो बेगुनाह खंडहर में दफन हो गए वो लोग भी हमास की लिस्ट मे नत्थी मान लिए जायेंगे ! प्रचंड नफरत के इस दौर में कटे फटे बच्चों के जिस्म की तस्वीरें भी अब सभ्य समाज को आनंद देने लगी हैं ! नफ़रत की खमीर से बनी बारुद ने मानवीय संवेदनाओं की शक़्ल सूरत ही बदल दिया है ! शायद नफ़रत में बारूद से ज्यादा ज़हर उतर आया है ! हाँ तो नफरत ही विनाश की प्राणवायु है!
जो इस दौर में भी ईमानदारी से इतिहास को याद रख पाए हैं, उन्हें मालूम होगा कि एडोल्फ हिटलर ने यहूदियों के सामुहिक नरसंहार के पहले जर्मनी को किस क़दर नफरत मे डुबोया था ! उसने एक नारा दिया था,- जूडाह वेरेका -! ( यहूदियों का सर्वनाश हो-!) फिर उसके बाद एक पूरी कौम को खत्म करने का जघन्य अपराध इतिहास ने देखा, जिसमें 60 लाख बेकसूर लोग मारे गए और 30 लाख लोग पूरी दुनियां में छुपने के लिए भागे ! फिर भी ईसाई जगत हिटलर को आज भी आतंकी नहीं कहता ! उन्हीं दिनों (1943 मे) पानी के एक जहाज से भागे हुए हज़ारों शरणार्थी इजराइली फिलिस्तीन के तट पर जा पहुँचे ! अरब मुस्लिमों ने उन्हें शरण दिया जिन्हें हिटलर के खौफ से फ्रांस ने भी मना कर दिया था,और आज उन्हीं के बंशज़ यहूदी लोग अरबों से कह रहे हैं, - शहर खाली कर दो- और मिस्र चले जाओ -"! ( बाबा भारती ने डाकू खड़क सिंह से कहा था, -" घोड़ा ले जाओ मगर इस घटना का जिक्र किसी से मत करना, वर्ना लोग मुसीबत में पड़े आदमी की मदद नहीं करेंगे-"!
शायद गाजा के नए तामीर हो रहे कब्रिस्तान पर फिर बस्तियाँ आबाद हों! शायद फिर कोई गाजी सलाहुद्दीन आए ! लगता है कि बैतुल मुकद्दस के इर्द गिर्द की ज़मीन को सदियों से इंसानी लहू पीने की आदत पड़ चुकी है ! लोग कहते हैं कि हम गुफा युग से निकल कर सभ्यता के माउंट एवरेस्ट पर जा पहुंचे हैं ! हम नई सभ्यता के ध्वजवाहक हैं, जो शांति के कबूतर उड़ाती है, शांति के लिए नोबेल पुरस्कार देती है और दस्ताने पहन कर मासूमों को कत्ल करती है, ताकि दामन पर लहू के छींटे न दिखाई दें ! हम सभ्य तो हैं मगर न्याय देने मे अदालत नहीं, जिसकी लाठी उसकी भैंस पर ही अमल करते हैं ! लाठी धारी मुल्कों का अपना गैंग,अपनी अदालत है! वो जिसे अपराधी कह दें वही मुज़रिम ! उनके एनकाउन्टर पर कोई सवाल नहीं उठाता ! ये नए मिजाज़ की अदालत है, जहां मानव अधिकार, रेडक्रॉस और इंसाफ़ के नाम पर संयुक्त राष्ट्र संघ सब कुछ है जो एक इशारे पर लकवा ग्रस्त हो जाता है !
तो,,,,,दुआ करें ! शायद हमारी दुआओं से ऊपर वाला कोई चमत्कार कर दे ! वैसे,,,1948 से आज तक फिलिस्तीन के मसले में कोई आसमानी चमत्कार हुआ नहीं है ! सुना है 57 मुस्लिम देश हैँ, पर पिछले 5 जंगों में फिलिस्तीन की झोली में सिर्फ़ दुआएं ही आती हैं,- बिखरी हुई, दयनीय, मजलूम और पसमांदा दुआएं !!
Sultan bharti (journalist)
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