Sunday, 30 August 2020

" काहे आग मूतते हैं"!

             "आग मूतना"  कला नहीं कैरेक्टर की पराकाष्ठा है। कमाल ये है कि मूतने वाले को भी आग नजर नही आती और भुक्त भोगी चिल्लाता फिरता है- ' जल गया - जल गया मेरे दिल का जहां !' तो,,,,, पता ये चला कि आग मूतने से दरअसल जलता क्या है! वैसे, सत्य वचन बोले तो,,, मैंने आज तक किसी को आग मूतते नहीं देखा- अलबत्ता सुना बहुत है। बचपन में मेरे सगे चच्चा अक्सर मुझे धमकाते हुए कहते थे- ' बहुत आग मूत रहे हो, आने दो भइया को !'
         गांव में अक्सर शरारती बच्चे को ये सुनना पड़ता था! पहली बार जब मुझे अपनी इस खासियत का पता चला तो घबरा गया ! सोचने लगा, ' पेट में इतनी आग लेकर घूम रहा हूं, तेरा क्या होगा भारती '! ( बाद में आत्म ज्ञान प्राप्त हुआ !) लेकिन शहर आकर पता चला कि आग मूतने का उम्र से कोई लेना देना नही है!. इस कला में कई दीर्घायु वालों ने नार्मल आग मूतने वालों को मीलों पीछे छोड़ रखा है!
     गौरवशाली वर्तमान देखता हूं तो आग मूतने के मामले में कुछ महापुरुषों का स्टेमिना देख कर दंग रह जाता हूं। कुछ बुद्धिजीवी प्राणियों ने तो सोशल मीडिया  को यूरिनल समझ लिया है - सारी आग यहीं निकालनी है! कुछ विद्वानों ने कोरोना की आड़ में आग मूती तो कुछ ने सीधे दिल की रिफाईनरी को ही मशाल दिखा दी ! कई चैनल्स के डिबेट आग मूतने के अखाड़े बन गए!
     शरारती बच्चे सबको अच्छे लगते हैं,पर आग मूतने वाला किसी को अच्छा नहीं लगता, चाहे वो समाज में मूत रहा हो या सियासत में! उनके खिलाफ भी आवाज़ उठनी चाहिए, ' गधे के पूत- यहां मत मूत '!

         ,,,,, कि मैं कोई झूठ बोल्या !!

Thursday, 27 August 2020

"चलो इश्क लड़ाएं" !

         मेरी मानसिक स्थिति पर शंका न करें ! मैं भी जानता हूं कि लड़ाई झगडे में कुछ नहीं रखा है ! मैं तो ये  भी जानता हूं कि इश्क कोई तीतर बटेर या मुर्गा भी नहीं है कि जिसे लड़ाया जा सके ! वैसे मैं नेता भी नहीं हूं जो इश्क को लड़ाई झगडे में खींचू ! इश्क को कैसे लड़ाया जाता है, मुझे तो अभी ठीक ठीक पता भी नहीं है! राहत इंदौरी कहते थे कि ७० साल के बाद आदमी इश्क  के लायक होता है! ( क्योंकि इस उम्र में इश्क के अलावाऔर कुछ होता भी नहीं !)

   तो,,, मै १२ साल पहले क्या करूं?
     मेरा दुर्भाग्य देखिए, मै फर्स्ट फ्लोर पर रहता हूं, मुझसे नीचे ग्राउंड फ्लोर पे एक युवा कवि आया है! कवि की बीवी गांव गई है , और युवा कवि ने तीन दिन से नींद उड़ा रखी है! कोरोना काल में मंच मुक्त चल रहा कवि रात में घातक हो जाता है ! कल दिन भर अलाप लगाता रहा,  " चलो इश्क लड़ाएं ! चलो इश्क लड़ाएं,,,"! मुहल्ले वालों के कान खड़े हो गए ! युवा पत्नियों वाले  पति सावधान हो गए ! दो दिन शान्त रहने के बाद आज रात ठीक बारह बजे एक नए गीत के साथ कवि ने मेरी नींद उड़ा दी " अनामिका तू भी तरसे,,,,!"
      मै घबरा गया , क्या कवि अपनी नव विवाहित पत्नी को श्राप दे रहा हैै! विरह ने उसके दिमाग पर घातक असर डाला था! पहले तो मै खुश हुआ कि चलो अब कवि की रचना में इन्कलाब पैदा होगा, फिर उसके स्वर की तीव्रता में मुझे विरह में बारूद की गन्ध मिलने लगी। कवि अपनी प्रियतमा पर आरोप लगा रहा था," तुझे बिन जाने बिन पहचाने मैंने हृदय से लगाया,,,!"                  रात के चार बज चुके हैं, कवि विद्रोह रस में डूबा हुआ गा रहा है " जल गया जल गया मेरे दिल का जहां"!  मुझे लगा कि कवि गैस लाइटर लेकर सिलेण्डर पर बैठ चुका है। मै घबरा कर  पसीना पोछ रहा हूं और नीचे कवि पड़ोसियों पर निशाना साध रहा है, " सांस लेता हूं जब मुंह से निकले धुआं"! मै घबरा कर सोचने लगा , कहीं गुस्से में आकर कवि कपड़ा उतार कर चूल्हे पर तो नहीं बैठ गया !

       लोग तो यही कहेंगे , इसमें दिल का क्या कसूर !!
       

Monday, 24 August 2020

' साहित्यिक पुरस्कार '

                              आजकल पालक से पेट्रोल तक की कीमत में आग लगी हुई है !कोरोना ने आटा से लेकर अर्थव्यवस्था तक का मुंडन कर डाला है , पर साहित्यकार की प्रतिभा में सूनामी ना रोक पाया ! रचनाओं की वेगमती धारा ने कोरोना को भी तबीयत से लपेटा ! मार्च 2020 से जून २०२० तक का समय संक्रमण और साहित्य से मालामाल होता रहा ! ( अनुकूल जलवायु पाकर कुछ अस्पताल " किडनी" में भी आत्मनिर्भर हो गए !) लॉक डॉउन में पत्नी का अत्याचार झेल रहे अधिकांश रचनाकर साहित्य में नई नई सुरंग खोदने लगे ! साहित्य सृजन से संपदा कम और समस्या ज़्यादा आती है ! (  लेखक के पड़ोसियों की आपबीती ! इसलिए सुरक्षावश कई लोग रचनाकार और कोरोना दोनो से सोशल डिस्टेन्स बना कर चलते हैं !)
         अमूमन साहित्यकार की दो प्रजातियां पाई जाती है !  एक झेला जा सकता है, दूसरा लाईलाज ! पहले किस्म का रचनाकार टैलेंट की जगह जुगाड को आधार बनाता है ! ये जुगाड़ू साहित्यकार अक्सर टैलेंट वाले साहित्यकार के हिस्से की साहित्यिक पंजीरी चट कर जाते हैं ! जुगाड़ू रचनाकार की  बगैर रीढ़ वाली रचनाएं भी आसानी से छप जाती हैं, समीक्षा भी अखबारों में आ जाती है और पुरस्कार की संस्तुति भी हो जाती है ! इसके बरक्स - प्रतिभाशाली साहित्यकार कलम, स्वाभिमान, और क्रोध से लबालब होता है ! वो अपने और ईश्वर के बीच में किसी तीसरे के अस्तित्व को बर्दाश्त ही नहीं करता  ( कोई कोई तो ईश्वर को भी बड़ी मुश्किल से पास आने देता p है !) 
       कुदरती साहित्यकार के मित्र बहुत सीमित होते हैं ! ( झेलने की सहिष्णुता सबमें नहीं होती !) शादी के बाद आजीवन बीबी दुखी ! जिस कॉलोनी में घर हो , वहां के पडोसी दुखी ! ( मंच से बेदखल कई रचनाकार श्रोता की घात में रहते हैं !)  ज़माना खराब है , नकली साहित्यकार का बाज़ार पर कब्ज़ा है !  "श्री जुगाड चंद" दुबई तक पहुंच गए और  "बुद्धि लाल" जी को अपने ही शहर के कवि सम्मेलन में नहीं बुलाया जाता ! नियति के इसी छायावाद से प्रतिभा कुंठित है और कवि क्रुद्ध ! गधे एक सुर में घोड़ों के निष्कासन की वकालत कर रहें हैं ! साहित्य में गधा युग का प्रयास जारी  है! कई सभ्रांत परिभाषाओं की खालपोशी तय है !
            हमें झूठी प्रशंसा की दीमक लग गई है ! कई बार आपके द्वारा की गई झूठी प्रशंसा को रचनाकार सच मान लेता है ! सोचिए ! अगर कोई रचनाकार गलती से साहित्य के दरिया ए आतिश में उतर आया है और उसकी दुखी आत्मा उसे घर वापसी की सलाह दे रही हो , और ऐसे में कोई दुश्मन उसकी बेजान रचना को "कालजयी" कह दे तो क्या होगा ! वो तो आक्रामक तरीके से साहित्य सृजन की शपथ ले लेगा ! ऐसे में रचना कालजयी हो न हो , रचनाकार के परिवार का  ' काल कवलित ' होना तय है ! कुछ लोगों को प्रशंसा करने का ऐसा रोग होता है कि उन्हें मौक़ा दिया जाये तो वो मक्खी में भी मिनरल्स और विटामिन ढूंढ लेंगे ! 
             हर लेखक का सपना होता है - पुरस्कार हासिल करना ! सबको सपना देखने की आज़ादी है ! लेकिन प्रॉपर चैनल से पुरस्कार पाना बहुत कठिन है ! अपने देश की एक विचित्र साहित्यिक रवायत है ! यहां साहित्यकार की उम्र पचास साल के बाद शुरू होती है ! दस किलो आर्टिकल्स लिखने के बाद लेखक " वरिष्ठ " होना शुरू होता है ! सत्तर साल का होते होते वो " विख्यात " मान लिया जाता है ! ( स्मरण रहे, ज़्यादातर मामलों में वरिष्ठ या विख्यात होने के लिए "टेलेंट" की बाध्यता नहीं है !) प्रतिभा के बावजूद हर रचनाकार साठ साल की उम्र में वरिष्ठ मान लिया जाये , इसकी भी कोई गारंटी नहीं ! ऐसा भी हो सकता है कि ' वरिष्ठ ' और ' विख्यात ' होने की  प्रतीक्षा में साहित्यकार सीधे  "वीरगति" को प्राप्त हो जाए ! ( वैसे मरने के बाद रचना कार को ज़्यादा सम्मान मिलता है ! विरोधी   भी कहते हैं, - " खुदा बख्शे ! बहुत सी खूबियां थीं मरने वाले में !)
                               मुझे याद है, जाने माने पत्रकार और " राष्ट्रीय विश्वास " अख़बार के कार्यकारी संपादक लतीफ़ किरमानी साहब ने आठ साल पहले यूपी के सबसे बड़े साहित्यिक पुरस्कार ' यश भारती ' के बारे में मुझसे कहा था , ' व्यंग्य विधा के स्थापित स्तंभकार हो !. इस बार अप्लाई करो ! तुम डिजर्व करते हो !' मै भी बहकावे में आ गया , सोचा  पुरस्कार का नाम    ' यश भारती ' और  मै  ' सुलतान भारती ' ! हो ना हो , इस पुरस्कार की प्रेरणा सरकार को मेरे ही नाम से मिली होगी ! अप्लाई करने के अगले ही दिन से अख़बार देखने लगा ! अगले महीने जब लिस्ट आईं तो आसमान से गिरा - पता चला कि '  अबहुं ना आए  बालमा सावन बीता जाए -' !  

                अब मैं ऐसी गलती नहीं करता ! क्योंकि,,,, पुरस्कार हासिल करने वाले ' पाइथागोरस  का प्रमेय ' कुछ कुछ समझ में आने लगा है !!

.... Sultan bharti

Wednesday, 12 August 2020

"मिले सुर मेरा तुम्हारा"

                                     मै भी सुर से सुर मिलाना चाहता हूं, लेकिन करूं क्या! दिल है कि मानता नहीं! मैं 
प्रगतिशील और अवसरवादी मित्रों को सफाई देता हूं, - " जाने दीजिए, दिल तो बच्चा है जी !" ( मित्र मन ही मन बद्दुआ देकर कोरोना का वर्तमान स्कोर देखने के लिए टीवी खोल लेते हैं !) मै दिल से पूछता हूं, - दिले नादां तुझे हुआ क्या है ! दो तीन बार पूछने पर अंदर से फुफकारती हुई आवाज़ आई ,- ' अबे ओ मंच से ठुकराए हुए कवि ! हालात- ए  हाजरा- से सुलह कर , वरना किचन तेरा विधवा हो जाएगा ! सुर से सुर मिलाना सीख बेसुरे! वरना वक्त तुझे डस्टबिन में डाल देगा '!
           जानता तो मै भी हूं कि  सुर से सुर का मिलना कितना ज़रूरी है ! अब देखिए ना, सुर से सुर मिल जाए तो सरकार बन जाती है! सुर से सुर निकल भागे तो प्राणी " मुख्य मंत्री"  से सीधे  " कमलनाथ" होकर रह जाता है! सुर की महिमा अपरम्पार! अब देखिए ना, अगर असुर भी प्रशासन से सुर मिला लेे तो थाने के अंदर विधायक को गोली मार कर ज़मानत पा सकता है,लेकिन सरगम बिगड़ जाए तो अच्छी भली धीमी गति के समाचार की रफ़्तार से चलती स्वस्थ गाड़ी भी उलट कर प्राणी को " विकास दूबे" बना देती है !
         कांग्रेसी नेताओं को सुर की इम्पोर्टेंस का पता था, तभी वो इतनी देर तक रेगिस्तान में नाव चलाते रहे। वो जानते थे कि ये विभिन्न सुरों वाले महापुरुषों का देश है, इसलिए सबके सुरों का ध्यान रखते थे! ( दंगे और विकास दोनों में गज़ब का तालमेल था!)  उनके नेताओं का कांफिडेंस इतना गज़ब था कि जनता को असंभव स्लोगन सुनकर भी हैरानी नहीं होती थी । कांग्रेस शासनकाल में एक नारा आया, - चार कदम सूरज की ओर ! जनता ने बिलकुल नहीं पूछा ,- कैसे! ( जब कि उस वक्त उनकी पार्टी में कुछ नेता इतने वयोवृद्ध थे कि ठीक से चला नहीं जाता था !)
    सुर का सुर से मिलना कितना ज़रूरी होता है, इसका अनुभव ' आसाराम ' और राम रहीम ' से ज़्यादा किसे होगा ! जब तक सरगम से मधुर मोहिनी का जादू चला नेता चरणों में लोट पोट करते रहे,कुंडली  " सद्कर्मों ' से लबालब होते ही नेता सरगम से निकल भागे, ' हमारे अंगने में तुम्हारा क्या काम है!' 
       सुर से सुर मिल जाए तो अस्थिर सरकार भी ५ साल चल जाती है ! सुर से सुर निकल भागे तो प्राणी "जीतन राम मांझी " होकर रह जाता है। सुर का सुर से मिले रहना कितना ज़रूरी होता है, इसे कोई अशोक गहलोत से पूछे; जो आजकल विधायकों का पूरा पिंजरा उठाए इस होटल से उस होटल भागते हुए नजर आ रहे हैं! ( फिर भी पक्का पता नहीं कि सुर असुर के बीच चल रहे इस समुद्र मंथन से " अमृत" बरामद होगा या  कड़वा "हलाहल" !)
               सुर मिलाने में सावधानी जरूरी है, वरना जीवन भर इंसान को ये सदमा सदमा सोने नहीं देता , - दुनियां बनाने वाले क्या तेरे मन में समाई, काहे को दुनियां बनाई!' मैरिज के मामले में भी सुर से सुर के मिलाप से पहले दिल को दड़बे में डाल कर दिमाग़ का इस्तेमाल करना चाहिए , वरना जीवन भर  'के एल सहगल'  के स्वर में गाना पड़ सकता है, जब दिल ही टूट गया- तो जी के क्या करेंगे "! ( अबे, किसी और से सुर मिला ना !)
     सुर मिलाने के  शूरवीरों का क्या कहना! अगर इस कला में महर्षि हो गए तो,,,,, बकवास को ही विकास समझाया जा सकता है।बेकारी को रोज़गार और खाली जेब को आत्मनिर्भर  समझने वाली नस्ल टीवी देख कर दीक्षित हो रही है । कोरोना  और विकास के इस ऑड - ईवन  में कोरोना आगे चल रहा है ! दिल जलता है तो जलने दो !  सितारों से आगे जहां और भी हैं,,,,,, पहले 'विश्व गुरू' होना ज़रूरी है!
           बेकारी बे काबू है और किचन क्रिटिकल! आपदा को  "अवसर" बनाने की खबरें चारों ओर से आ रही हैं ! ( लोग अपने अपने तरीके से आत्मनिर्भर हो रहे हैं !) अब जब कि कोरो ना संक्रमित मरीज की तादाद 50000( 24घंटे में) पार कर गई है तो कहीं राशन किट नहीं बट रही है। सारे कोरोना योद्धा  सर्टिफिकेट चोंच में लिए शीतनिद्रा में जा चुके है।

   जागो मोहन प्यारे जागो !!

Sunday, 2 August 2020

"मिले सुर मेरा तुम्हारा"

                                     मै भी सुर से सुर मिलाना चाहता हूं, लेकिन करूं क्या! दिल है कि मानता नहीं! मैं 
प्रगतिशील और अवसरवादी मित्रों को सफाई देता हूं, - " जाने दीजिए, दिल तो बच्चा है जी !" ( मित्र मन ही मन बद्दुआ देकर कोरोना का वर्तमान स्कोर देखने के लिए टीवी खोल लेते हैं !) मै दिल से पूछता हूं, - दिले नादां तुझे हुआ क्या है ! दो तीन बार पूछने पर अंदर से फुफकारती हुई आवाज़ आई ,- ' अबे ओ मंच से ठुकराए हुए कवि ! हालात से सुलह कर , वरना किचन तेरा विधवा हो जाएगा ! सुर से सुर मिलाना सीख बेसुरे! वरना वक्त तुझे डस्टबिन में डाल देगा '!
           जानता तो मै भी हूं कि  सुर से सुर का मिलना कितना ज़रूरी है ! अब देखिए ना, सुर से सुर मिल जाए तो सरकार बन जाती है! सुर से सुर निकल भागे तो प्राणी " मुख्य मंत्री"  से सीधे  " कमलनाथ" होकर रह जाता है! सुर की महिमा अपरम्पार! अब देखिए ना, अगर असुर भी प्रशासन से सुर मिला लेे तो थाने के अंदर विधायक को गोली मार कर ज़मानत पा सकता है,लेकिन सरगम बिगड़ जाए तो अच्छी भली धीमी गति के समाचार की रफ़्तार से चलती स्वस्थ गाड़ी भी उलट कर प्राणी को " विकास दूबे" बना देती है !
         कांग्रेसी नेताओं को सुर की इम्पोर्टेंस का पता था, तभी वो इतनी देर तक रेगिस्तान में नाव चलाते रहे। वो जानते थे कि ये विभिन्न सुरों वाले महापुरुषों का देश है, इसलिए सबके सुरों का ध्यान रखते थे! ( दंगे और विकास दोनों में गज़ब का तालमेल था!)  उनके नेताओं का कांफिडेंस इतना गज़ब था कि जनता को असंभव स्लोगन सुनकर भी हैरानी नहीं होती थी । कांग्रेस शासनकाल में एक नारा आया, - चार कदम सूरज की ओर ! जनता ने बिलकुल नहीं पूछा ,- कैसे! ( जब कि उस वक्त उनकी पार्टी में कुछ नेता इतने वयोवृद्ध थे कि ठीक से चला नहीं जाता था !)
    सुर का सुर से मिलना कितना ज़रूरी होता है, इसका अनुभव ' आसाराम ' और राम रहीम ' से ज़्यादा किसे होगा ! जब तक सरगम से मधुर मोहिनी का जादू चला नेता चरणों में लोट पोट करते रहे,कुंडली  " सद्कर्मों ' से लबालब होते ही नेता सरगम से निकल भागे, ' हमारे अंगने में तुम्हारा क्या काम है!' 
       सुर से सुर मिल जाए तो अस्थिर सरकार भी ५ साल चल जाती है ! सुर से सुर निकल भागे तो प्राणी "जीतन राम मांझी " होकर रह जाता है। सुर का सुर से मिले रहना कितना ज़रूरी होता है, इसे कोई अशोक गहलोत से पूछे; जो आजकल विधायकों का पूरा पिंजरा उठाए इस होटल से उस होटल भागते हुए नजर आ रहे हैं! ( फिर भी पक्का पता नहीं कि सुर असुर के बीच चल रहे इस समुद्र मंथन से " अमृत" बरामद होगा या  कड़वा "हलाहल" !)
               सुर मिलाने में सावधानी जरूरी है, वरना जीवन भर इंसान को ये सदमा सोने नहीं देता , - दुनियां बनाने वाले क्या तेरे मन में समाई, काहे को दुनियां बनाई!' मैरिज के मामले में भी सुर से सुर के मिलाने से पहले दिल को दड़बे में डाल कर दिमाग़ का इस्तेमाल करना चाहिए , वरना जीवन भर  'के एल सहगल'  के स्वर में गाना पड़ सकता है, जब दिल ही टूट गया- तो जी के क्या करेंगे "! ( अबे, किसी और से सुर मिला ना !)
     सुर मिलाने में माहिर  शूरवीरों का क्या कहना! अगर इस कला में महर्षि हो गए तो,,,,, बकवास को ही विकास समझाया जा सकता है।बेकारी को रोज़गार और खाली जेब को आत्मनिर्भर  समझने वाली नस्ल टीवी देख कर बालिग हो रही है । कोरोना  और विकास के इस ऑड - ईवन  में कोरोना आगे चल रहा है ! दिल जलता है तो जलने दो !  सितारों से आगे जहां और भी हैं,,,,,, पहले 'विश्व गुरू' होना ज़रूरी है!
           बेकारी बे काबू है और किचन क्रिटिकल! आपदा को  "अवसर" बनाने की खबरें चारों ओर से आ रही हैं ! ( लोग अपने अपने तरीके से आत्मनिर्भर हो रहे हैं !) अब जब कि कोरोना संक्रमित मरीज की तादाद 50000( 24घंटे में) पार कर गई है तो कहीं राशन किट नहीं बट रही है। सारे कोरोना योद्धा  सर्टिफिकेट चोंच में लिए शीतनिद्रा में जा चुके है।

   जागो मोहन प्यारे जागो !!